चीन पर चुप क्यों है जर्मनी?
६ दिसम्बर २०१९हांगकांग में इसी साल जून में सरकार विरोधी प्रदर्शन शुरू हुए. प्रदर्शन करने वाले तभी से अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल करने में जुटे हैं. इसके अलावा पश्चिमोत्तर चीन में उइगुर मुसलमानों और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को तथाकथित रिएजुकेशन कैंप में रखे जाने को लेकर भी चीन में मानवाधिकारों के हनन के मामले में अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई की मांगें तेज हो रही हैं.
अब, कई मानवाधिकार कार्यकर्ता और राजनेता जर्मन चांसलर अंगेला मैर्केल से अपील कर रहे हैं कि वे मानवाधिकारों के मुद्दे पर चीन के खिलाफ "सख्त रुख" अपनाएं.
पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने मानवाधिकारों से जुड़े एक कानून पर हस्ताक्षर किए, जिसमें हांगकांग के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन की हिमायत की गई है. इसके बाद अमेरिकी कांग्रेस में उइगुर ह्यूमन राइट्स पॉलिसी एक्ट पारित किया गया, जिसमें चीन सरकार के अधिकारियों पर "लक्षित प्रतिबंध" लगाने की अपील की गई है.
दूसरी तरफ, हांगकांग में छह महीने से चल रहे आंदोलन और शिनचियांग में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के दमन की खबरों के बीच, चांसलर मैर्केल ने बड़ी सावधानी के साथ ना तो लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का स्पष्ट रूप से समर्थन किया है और ना ही शिनचियांग के कैंपों में लाखों लोगों को रखने की निंदा की है.
जर्मन संसद के निचले सदन बुंडेसटाग की मानवाधिकार समिति की प्रमुख गीडे येंसेन का कहना है, "अब समय आ गया है कि अंगेला मैर्केल आने वाली यूरोपीय परिषद की बैठक के एजेंडे में इसे (शिनचियांग को) रखें. साथ ही प्रतिबंध लगाने के विषय पर कोई साझा यूरोपीय रुख की बात होनी चाहिए. "
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पिछले महीने एसोसिएशन ऑफ जर्मन चैंबर्स ऑफ इंडस्ट्री एंड कॉमर्स की बैठक में अपने भाषण में मैर्केल ने कहा कि जर्मनी और यूरोप को वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है. उन्होंने कहा, "एक तरफ अमेरिका है जहां पूरी तरह से आजादी है और दूसरी तरफ चीन की व्यवस्था है, जो बिल्कुल ही अलग तरीके से सामाजिक रूप से व्यवस्थित है, जो पूरी तरह सरकारी है और कभी कभी दमनकारी भी हो जाती है."
पिछले महीने ही मैर्केल ने जर्मन संसद में कहा कि जब उइगुर कैंपों की रिपोर्टें आती हैं तो "निश्चित तौर पर जर्मनी को आलोचना करनी होगी". उन्होंने कहा कि वह इस मुद्दे पर यूरोपीय संघ के रुख का समर्थन करती हैं. वह इस बात के भी हक में हैं कि संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार अधिकारियों को शिनचियांग में जाने की इजाजत दी जानी चाहिए.
हांगकांग के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि सिटी डिस्ट्रिक्ट के चुनाव शांतिपूर्वक होना "अच्छा संकेत " है और जनमत की स्वतंत्र अभिव्यक्ति "एक देश, दो व्यवस्थाओं " का एक अच्छा उदाहरण है.
हांगकांग के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन की मांग है कि जनता को चुनाव के जरिए हांगकांग के चीफ एग्जीक्यूटिव को चुनने का अधिकार होना चाहिए जबकि चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी पसंद के व्यक्ति को चीफ एग्जीक्यूटिव नियुक्त कर वहां अपनी पकड़ मजबूत रखना चाहती है.
सितंबर में चांसलर मैर्केल के चीन दौरे के बाद हांगकांग के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के नेता जोशुआ वांग ने कहा कि वह इस बात से निराश हैं कि जर्मन चांसलर ने "स्पष्ट तौर पर हांगकांग में स्वतंत्र चुनाव कराने की अपील तक नहीं की. "
जर्मनी की एरलांगेन-नूरेमबर्ग यूनिवर्सिटी में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार नीति की प्रोफेसर कातरिन किनसेलबाख का कहना है कि जर्मन सरकार को हांगकांग के मुद्दे पर "स्पष्ट रुख" अपनाना चाहिए.
उनका कहना है, "डिस्ट्रिक्ट चुनाव के नतीजे बताते हैं कि हांगकांग के लोग नहीं चाहते कि उन पर प्रत्यक्ष रूप से बीजिंग का शासन हो. जर्मन सरकार को अपने सार्वजनिक बयानों में इस संदेश को समर्थन देना चाहिए."
वैसे जर्मनी उन 22 देशों में शामिल है जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में एक आधिकारिक बयान पर हस्ताक्षर कर शिनचियांग के उइगुर कैंपों की निंदा की है. अभी तक जर्मनी और यूरोपीय संघ ने ऐसा कोई साझा रुख तय नहीं किया है कि कदम क्या उठाए जाने चाहिए. मैर्केल की इस बात की आलोचना हो रही है कि उन्होंने बहुत ही नरम लहजे में इन कैंपों की आलोचना की है.
मानवाधिकार नीति और मानवीय सहायता पर जर्मनी की आयुक्त बारबैल कोफलर ने कहा, "चीन के शिनचियांग में दस लाख से ज्यादा लोगों को कैंपों में रखने की खबरें भयानक हैं. चीन को शिनचियांग में मानवाधिकारों की स्थिति सुधारने के लिए स्पष्ट तौर पर कदम उठाने ही होंगे."
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सितंबर में मैर्केल के चीन दौरे के बाद, जर्मनी की दिग्गज कंपनी सीमेंस के प्रमुख यो कायजर ने जर्मनी को चेतावनी दी कि चीन की बहुत ज्यादा आलोचना ना की जाए और उन्होंने चीन के प्रति "समझदारी और सम्मान से भरा" नजरिया रखने को भी कहा. जर्मन अखबार 'डी वेल्ट' के साथ इंटरव्यू में उन्होंने कहा, "अगर जर्मनी में नौकरियां इस बात पर निर्भर करती हैं कि हम विवादित मुद्दों से कैसे निपटते हैं, तो फिर हमें गुस्से को बढ़ाने वाले कदम नहीं उठाने चाहिए, बल्कि सभी बातों और कदमों पर सावधानी से विचार करना चाहिए."
सीमेंस के अलावा बीएएसएफ और फोल्क्सवागेन की शिनचियांग में फैक्ट्रियां हैं.
अमेरिकी कदमों के बाद जोशुआ वांग को उम्मीद थी कि जर्मन सरकार भी ऐसे ही कदम उठाएगी और चीन के खिलाफ प्रतिबंधों का कोई तंत्र विकसित करेगी. हालांकि चीन के साथ अमेरिका का पहले से ही कारोबारी युद्ध चल रहा है और उसका प्रभाव भी कहीं ज्यादा है. वहीं जर्मनी चीन के साथ संबंधों में बेहद सावधानी से काम ले रहा है. चीन जर्मनी के सबसे अहम व्यापारिक साझीदारों में से एक है. दोनों देशों के बीच 2018 में 199.3 अरब यूरो कारोबार हुआ.
किनसेलबाख का कहना है, "हांगकांग में गंभीर स्थिति को देखते हुए, यह सही होगा कि निर्यात के मौजूदा नियमों की समीक्षा की जाए." उन्होंने कहा कि मानवाधिकारों के हनन को देखते हुए जो कदम उठाए जा सकते हैं उनमें हथियार की बिक्री पर रोक और कुछ चुनिंदा अधिकारियों की आवाजाही पर रोक और उनके खातों को सील करना शामिल हो सकता है.
उन्होंने कहा, "यूरोप को आंसू गैस और गोला बारूद हांगकांग को निर्यात नहीं करना चाहिए. जिस जिले की पुलिस बहुत ज्यादा बल प्रयोग करती है, उसे परिणामों का डर होना चाहिए."
दूसरी तरफ, यह बात भी सही है कि चीन के खिलाफ मानवाधिकारों के हनन को लेकर जो भी प्रतिबंध लगाए जाएंगे, वे यूरोपीय संघ के ढांचागत दायरे में तय होंगे. यह खासा जटिल काम है क्योंकि चीन के मुद्दे पर यूरोपीय संघ के देशों की राय अलग अलग है.
किनसेलबाख कहती हैं, "इस दिशा में कदम उठाने के लिए यूरोपीय संघ में जर्मनी अहम भूमिका निभा सकता है, लेकिन दुर्भाग्य से यूरोप चीन के साथ एक सुर में बात नहीं करता." चांसलर मैर्केल ने नवंबर में कहा था कि अगर यूरोपीय संघ का हर देश अपनी चीन नीति बनाए तो यह "खतरनाक" होगा. लेकिन जर्मन संसद की मानवाधिकार समिति की प्रमुख येंसेन कहती हैं, "दीर्घकालीन नजरिए से, लोकतंत्र और मानविधकारों को आर्थिक फायदे से ज्यादा प्राथमिकता देनी होगी, क्योंकि हम जानते हैं कि चीन एक तानाशाही है और आप यह कभी नहीं जान पाएंगे कि तानाशाही में आर्थिक विकास कैसे होता है."
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