चींटियों की जंग में मोर्चे पर मरने जाते हैं बूढ़े सैनिक
९ मार्च २०१८इस हफ्ते एक रिसर्च के नतीजों में यह बात सामने आई है. जब जिंदगी और मौत की जंग हो यानी कि किसी घुसपैठिए ने उनके घर पर हमला बोला हो या फिर उनका खाना छीनने की कोशिश कर रहा हो तो चीटियों का झुंड एक खास सैन्य रणनीति के तहत हरकत में आता है और यह रणनीति इंसानों की युद्धनीति से बिल्कुल उलट है. रॉयल सोसायटी जर्नल बायोलॉजी के रिसर्चरों ने अपनी रिपोर्ट में यह बात कही है.
जापान के रिसर्चरों की एक टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है प्रयोगशाला में प्रयोग के दौरान, "युवा रंगरूटों की तुलना में बूढ़े सैनिक मोर्चे पर ज्यादा बार आगे गए और बांबी के दरवाजों को दुश्मनों के लिए बंद करने की कोशिश की." रिसर्चरों ने इसके साथ ही रिपोर्ट में यह भी कहा है, "नतीजों से पता चलता है कि चींटियों ने सैनिकों को उम्र के आधार काम बांट रखा है, जिसमें उम्रदराज सैनिक ज्यादा खतरनाक काम के लिए भेजे जाते हैं." एक और दिलचस्प बात है कि बूढ़े सैनिकों की तुलना में बूढ़ी मादा चीटियों को और ज्यादा मोर्चे की पहली पंक्ति में जगह दी गई ताकि वो हमले झेल कर दूसरों की रक्षा करें.
रिसर्चरों ने यह भी देखा कि युवा सैनिक बांबी के दरवाजे की बजाय केंद्रीय हिस्से की सुरक्षा में ज्यादा तल्लीन थे. ठीक वैसे ही जैसे किसी राज्य के सैनिक सीमा की रक्षा करने की बजाय राजमहल की सुरक्षा पर सारा ध्यान दें. हालांकि इस तह की उम्र आधारित व्यवस्था सैनिकों की जीवन प्रत्याशा बढ़ाने में मदद करती है क्योंकि युवा सैनिक सुरक्षित रहते हैं. इस तरह से उन्हें अपना और अपने समुदाय का जीवन बढ़ाने में योगदान करने का ज्यादा मौका मिलता है.
ज्यादातर चींटियों में मादा और नर दोनों बांझ होते हैं. इनके बड़े जबड़े इनका हथियार हैं इनमें भी कई समूह होते हैं जैसे कि नवजातों का ख्याल रखने वाला समूह, बांबी का निर्माण करने वाला समूह और साथ ही प्रजनन करने वाले "राजाओं" और "रानियों" का समूह.
ऐसा नहीं कि बूढ़े सैनिकों को उनके अनुभव या सक्षमता के कारण मोर्चे पर भेजा जाता है. वो तो सुरक्षा तंत्र में बहुत योगदान भी नहीं कर पाते लेकिन फिर भी मोर्चे पर अगली कतार में उन्हें ही रहना होता है, खुद मर कर औरों को जिंदा रखने के लिए शायद. झुंड का यही रिवाज है.
एनआर/ओएसजे (एएफपी)