"गुर्दा बेच कर अमीर बनूंगा"
३ जून २०१३वीरू की उम्र महज 13 साल है. राजधानी दिल्ली से करीब तीन घंटे दूर वह एक गांव में रहता है. एक ऐसे गांव में जहां सरकार की नजरों से बच कर आसानी से बच्चों को खरीदा जा सकता है. वीरू को भी 2,500 रुपये में खरीदा गया था. अब वह एक कारखाने में काम करता है और गुच्ची के नकली स्टीकर वाले पर्स तैयार करता है. दिन भर में उसे कम से कम ऐसे 200 पर्स बनाने होते हैं. ऐसा ना करने पर उसे मालिक की फटकार मिलती है.
"गुर्दा बेच कर अमीर बनूंगा"
वीरू हमेशा ऐसा जीवन नहीं जीना चाहता और इस से बाहर निकलने का रास्ता भी वह खोज चुका है, "बड़ा हो कर मैं अमीर बनूंगा. मैं अपना एक गुर्दा बेच दूंगा और फिर मुझे काम करने की कोई जरूरत नहीं पड़ेगी". वीरू ने अपने पिता को चार साल से नहीं देखा है, पर उसका कहना है कि उसके पिता ने भी इसी तरह पैसे कमाए थे.
वीरू को लगता है कि गुर्दा बेच कर खूब पैसे कमाए जा सकते हैं. सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि भारत की कई झुग्गियों में यह बात फैली हुई है कि गुर्दा बेचना गरीबी से बाहर निकलने का एक रास्ता है. एक गुर्दे के करीब 55,000 रुपये तक मिल जाते हैं. सरकार की कोशिशों के बाद भी देश में अंगों की तस्करी रुक नहीं पा रही है. कुछ साल पहले सरकार ने अंगों की तस्करी पर सजा दो साल कैद से बढ़ा कर पांच साल कर दी है. लेकिन इस से भी कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है.
तस्करी को अंगदान का नाम दे कर लोग कानून का मजाक उड़ा रहे हैं. कागजों में यह दिखा दिया जाता है कि अंग देने वाला कोई करीबी दोस्त था. पैसे की या तो बात ही नहीं होती या फिर उसे उपहार का नाम दे दिया जाता है. इस तरह से कानूनी कार्रवाई का सवाल ही नहीं उठता.
रंग तय करता है दाम
अंगों के काले बाजार में अलग अलग देशों के अंगों के तय दाम हैं. अंग देने वाले का रंग जितना साफ दाम उतने ही ज्यादा. भारत या अफ्रीका से आए गुर्दे की कीमत करीब 55,000 है, मोल्डोवा और रोमेनिया के गुर्दे की करीब 1.5 लाख, तो वहीं तुर्की से लाए गए गुर्दे 5.5 लाख में बिकते हैं और अमेरिका में तो एक गुर्दे से 16 लाख रुपये तक कमाए जा सकते हैं.
साल 2011 में पूरी दुनिया में एक लाख दस हजार अंग प्रतिरोपण हुए. इनमें से 76,000 ट्रांसप्लांट गुर्दे के थे. विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के डॉक्टर लुक नोएल बताते हैं कि 2006 के बाद से अंग तस्करी में काफी कमी आई है. पिछले कुछ सालों में कई देशों ने सख्त कानून बनाए हैं. लेकिन नोएल यह भी मानते हैं कि इन कानूनों का कुछ ऐसा असर हुआ है कि काला बाजार अब अंडरग्राउंड हो गया है, खास कर पाकिस्तान और मिस्र में. इस कारण तस्करी तो जारी है, लेकिन सरकारों को इसकी भनक भी नहीं लग पा रही, "हमारा अनुमान है कि अंग प्रतिरोपण का करीब दस फीसदी हिस्सा ऐसा है जो कानूनी ढांचे के बाहर से काम कर रहा है".
डॉक्टरों का साथ
अंग तस्करी का कारोबार अरबों का है. इस पर नजर रख रही संस्था ऑर्गन वॉच के अनुसार अंग लेने वाले अधिकतर लोग पुरुष हैं जो अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब और इस्राएल से हैं. अंग लेने वाले व्यक्ति की औसत उम्र 48.1 साल है और सालाना आय 30 लाख रुपये है. इसके विपरीत अंग देने वाले अधिकतर लोग भारत, चीन, मोल्डोवा और ब्राजील से हैं. ये भी अधिकतर पुरुष हैं जिनकी औसत उम्र 28.9 वर्ष है और सालाना आय मात्र 27000 रुपये है.
तस्करी में शामिल डॉक्टर ऑपरेशन करने के लिए एक से दूसरे देश यात्रा करते रहते हैं. ये ऑपरेशन अधिकतर ऐसे देशों में होते हैं जहां कानून कड़े नहीं हैं और पकड़े जाने का खतरा कम है. ऑर्गन वॉच के अनुसार इन दिनों साइप्रस और कजाखस्तान काफी लोकप्रिय हैं.
हजारों को इंतजार
भारत की ही तरह जर्मनी में भी अंग तस्करी के लिए पांच साल की कैद की सजा है जो अंग लेने और देने वाले दोनों को ही मिलती है. अगर अंग प्रतिरोपण विदेश में जा कर कराया गया हो, तब भी सजा पर कोई असर नहीं होता. फिलहाल जर्मनी में 8,000 लोग नए गुर्दे का इंतजार कर रहे हैं.
जर्मनी के अलावा छह यूरोपीय देशों ने मिल कर एक प्रतिष्ठान बनाया है जहां अंगों के जरूरतमंद लोगों की सूची तैयार की गयी है. इसमें ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, लग्जेमबर्ग, नीदरलैंड्स, क्रोएशिया और स्लोवेनिया शामिल हैं. इन देशों ने मिल कर एक कंप्यूटर प्रोग्राम तैयार किया है जिसमें जरूरतमंदों के बारे में सारी जानकारी है. जैसे ही कोई अंगदाता मिलता है, उसकी जानकारी को भी इस प्रोग्राम में डाल दिया जाता है ताकि पता चल सके कि अंग किस को दिया जा सकता है.
नहीं होगी कमी पूरी
दुनिया भर में हजारों लोग अंगदाताओं के इंतजार में हैं. जर्मनी में सरकार ने बीमा कंपनियों को यह जिम्मेदारी दी है कि वे लोगों को अंगदान के बारे में जानकारी दें और उन्हें इसके लिए प्रेरित करें. कंपनियां लोगों को चिठ्ठी भेज कर पूछ रही हैं कि क्या वे मौत के बाद अपने अंग दान करना चाहेंगे. लेकिन अंगों की कमी इतनी है कि जानकारों का मानना है कि यदि हर जर्मन भी अपनी मृत्यु के बाद अंगदान का फैसला ले ले, तब भी इस कमी को पूरा नहीं किया जा सकता.
हालांकि ऐसा करने से कम से कम उन लोगों को बचाया जा सकेगा जो भारत, पाकिस्तान और फिलिपीन्स जैसे देशों में अपने अंग बेच कर दो वक्त की रोटी कमा रहे हैं. 13 साल के वीरू को इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि यह कितना बड़ा स्कैंडल है. उसके पास तो बस अपने भविष्य को ले कर एक सपना है, "वे मुझे जो पैसा देंगे, उस से मैं अपने लिए एक नया घर बनवाऊंगा और फिर मुझे कभी काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी". वह नहीं जानता कि उसका यह सपना कितना जोखिम भरा है.
रिपोर्ट: गुडरुन हाइसे/ ईशा भाटिया
संपादनः आभा मोंढे