गरीब बनाती स्वास्थ्य सेवाएं
११ जनवरी २०१९भारत में लगातार बढ़ते चिकित्सा खर्च की वजह से हर साल 23 फीसदी बीमार लोग अपना सही इलाज नहीं करा पा रहे हैं. इसके अलावा स्वास्थ्य के मद में होने वाले खर्च का 70 फीसदी लोगों को अब भी अपनी जेब से भरना पड़ता है, जो कि उन्हें गरीबी रेखा के नीचे धकेल देता है. केंद्र सरकार की ओर से चलाई जा रही आयुष्मान भारत जैसी स्वास्थ्य योजनाओं के बावजूद इस तस्वीर में ज्यादा बदलाव नहीं आया है.
स्वास्थ्य सेवाओं की सेहत खराब
आधारभूत ढांचे की कमी, मेडिकल कालेजों, अस्पतालों, प्रशिक्षित डाक्टरों और नर्सों के अभाव की वजह से देश में स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही बीमार हैं. आबादी लगातार बढ़ने के बावजूद आधारभूत ढांचे में सुधार पर अब तक कोई ध्यान नहीं दिया गया.
देश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकारी खर्च बीते लगभग एक दशक से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लगभग 1.3 प्रतिशत पर ही स्थिर है. छह फीसदी के वैश्विक स्तर की रोशनी में यह आंकड़ा बेहद दयनीय नजर आता है.
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 में वर्ष 2025 तक इसे बढ़ा कर जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का प्रस्ताव है. भूटान, श्रीलंका और नेपाल जैसे गरीब देश भी स्वास्थ्य सेवाओं पर डीजीपी का क्रमशः 2.5 फीसदी, 1.6 फीसदी और 1.1. फीसदी खर्च करते हैं.
देश की आबादी जितने समय में सात गुनी बढ़ गई, उस दौरान अस्पतालों की तादाद दोगुनी भी नहीं बढ़ सकी. मोटे अनुमान के मुताबिक, देश में फिलहाल छोटे-बड़े लगभग 70 हजार अस्पताल हैं. लेकिन उनमें 60 फीसदी ऐसे हैं जिनमें 30 या उससे कम बेड हैं. सौ या उससे ज्यादा बिस्तरों वाले अस्पतालों की तादाद तीन हजार से कुछ ज्यादा है. इस लिहाज से देखें तो लगभग सवा छह सौ नागरिकों के लिए अस्पतालों में महज एक बिस्तर उपलब्ध है. इससे हालात की गंभीरता का अनुमान लगाया जा सकता है.
स्वास्थ्य सेवाओं पर सबसे कम खर्च
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल, 2018 के मुताबिक, भारत उन देशों में शुमार है जहां स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च सबसे कम है. यहां वर्ष 2009-10 में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति सालाना सरकारी खर्च 621 रुपए था, जो वर्ष 2015-16 में बढ़ कर 1,112 रुपए (यानि करीब 15 डॉलर) तक पहुंचा. अब भी इसमें खास वृद्धि नहीं हुई है. इसके मुकाबले स्विट्जरलैंड का खर्च प्रति व्यक्ति 6,944 अमेरिकी डालर, अमेरिका का 4,802 डालर और इंग्लैंड का साढ़े तीन हजार अमेरिकी डालर है.
स्वास्थ्य सेवाओं पर आम लोगों की जेब से खर्च होने वाली भारी रकम से सामाजिक-आर्थिक संतुलन भी गड़बड़ा रहा है. एक अनुमान के मुताबिक, सात फीसदी आबादी हर साल इसी वजह से गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) चली जाती है. ऐसे लोग इलाज के लिए भारी कर्ज लेते हैं. यही नहीं, 23 फीसदी बीमार लोग तो पैसों की कमी से अपना सही इलाज भी नहीं करा पाते.
विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से बीते साल जारी स्वास्थ्य वित्तीय प्रोफाइल में कहा गया था कि भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च का 67.78 फीसदी आम लोगों की जेब से जाता है जबकि इस मामले में वैश्विक औसत महज 18.2 फीसदी है. इसका भी सबसे बड़ा हिस्सा लगभग 43 फीसदी दवाओं पर खर्च होता है.
पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन आफ इंडिया (पीएचएफआई) में निदेशक शक्तिवेल सेल्वराज कहते हैं, जिन बीमारियों में लोगों को जेब से सबसे ज्यादा खर्च करना पड़ता है उनमें कैंसर, हादसों में लगी चोट, दिल की बीमारियां और मानसिक असंतुलन शामिल हैं.
आयुष्मान भारत से उम्मीद
केंद्र सरकार ने बीते साल आयुष्मान भारत नामक एक स्वास्थ्य योजना शुरू की थी जिसे मोदी केयर भी कहा जा रहा है. इस कार्यक्रम के जरिए सरकार का प्रयास देश के 10 करोड़ परिवारों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने का है.
इसके दायरे में आने वालों को स्वास्थ्य बीमा के जरिए उक्त सेवाएं मुहैया कराई जाएंगी. इलाज पर होने वाला पांच लाख रुपए तक का खर्च सरकार उठाएगी. इसके तहत देश भर 1.5 लाख हेल्थ एंड वेलनेस केंद्र बनेंगे, जो प्राथमिक उपचार मुहैया कराएंगे. इस योजना का खर्च केंद्र और राज्य दोनों मिलकर उठाएंगे. नीति आयोग के सदस्य और आयुष्मान भारत कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने में अहम भूमिका निभाने वाले डॉक्टर विनोद पाल कहते हैं, "आयुष्मान दुनिया का सबसे बड़ा स्वास्थ्य मिशन है जो स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर बदल देगा.”
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि यह योजना कागजों पर तो अच्छी लगती है. लेकिन इसे पूरी तरह अमली जामा पहनाने की राह में कई मुश्किलें हैं. इस क्षेत्र के एक विशेषज्ञ प्रोफेसर मनीष चटर्जी कहते हैं कि मौजूदा बुनियादी ढांचे पर इतने लोगों का इलाज होना बड़ी चुनौती है. चटर्जी बताते हैं कि सरकारी अस्पतालों पर मरीजों का दबाव ज्यादा है, ऐसे में निजी संस्थानों को भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना होगा और सरकार को स्वास्थ्य पर बजट बढ़ाकर बुनियादी ढांचे पर काम करना होगा.
विशेषज्ञों के मुताबिक, आयुष्मान की राह में सबसे बड़ी चुनौती यह आ रही है कि निजी अस्पताल सरकार की ओर से विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए तय की गई दरों पर सहमत नहीं हैं. एसोसिएशन ऑफ हेल्थकेयर प्रोवाइडर के महानिदेशक डॉ गिरधर ज्ञानी कहते हैं, "सरकार को लगता है कि इन दरों पर इलाज संभव है. लेकिन यह दरें व्यवहारिक नहीं हैं.” इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के फाइनेंस सेक्रेटरी डॉ विनोद कुमार मूंगा कहते हैं, "इस योजना के पीछे सरकार की मंशा तो अच्छी है, लेकिन इसका क्रियान्वयन सबसे बड़ी चुनौती है.”
केंद्र और राज्य सरकारों के बीच घर्षण
तमाम राज्यों को इस योजना में साथ लेना भी इसकी कामयाबी की राह में एक प्रमुख चुनौती है. इस पर होने वाले खर्च का 60 फीसदी हिस्सा केंद्र उठाएगा और 40 फीसदी राज्य. पूर्वोत्तर के अलावा जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पर्वतीय राज्यों में केंद्र की हिस्सेदारी 90 फीसदी होगी. आयुष्मान का श्रेय केंद्र को मिलने की वजह से उसके सामने राज्यों को साथ जोड़ने की चुनौती भी है.
पश्चिम बंगाल सरकार ने तो एक दिन पहले ही इस योजना से किनारा कर लिया है. मुख्यमंत्री ममता बनर्जी कहती हैं, "बंगाल में आयुष्मान भारत योजना राज्य सरकार की स्वास्थ्य साथी योजना में मिला दी गई है. इसका 40 फीसदी खर्च राज्य सरकार वहन करती है.” उन्होंने केंद्र पर इस योजना के प्रचार-प्रसार में पारदर्शिता नहीं बरतने का आरोप लगाते हुए कहा है कि अब बंगाल सरकार इसमें शामिल नहीं होगी. अब केंद्र सरकार इसका पूरा श्रेय ले सकती है.
वह कहती हैं, "बंगाल में वर्ष 2017 से ही स्वास्थ्य साथी नामक एक ऐसी योजना चल रही है. इसके तहत लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराई जाती हैं. यह योजना पेपरलेस व कैशलेस है. इसके तहत लोगों को साल में बीमा के जरिए डेढ़ लाख रुपए तक की सहायता दी जाती है.”
विशेषज्ञों का कहना है कि आधारभूत ढांचे को मजबूत कर अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों की तादाद बढ़ाना और तमाम राज्य सरकारों को भरोसे में लेना इस योजना को जमीनी स्तर पर लागू करने की राह में सबसे बड़ी चुनौतियां हैं. इनको दूर नहीं करने तक यह बहुचर्चित योजना भी बेअसर ही रहेगी. डाक्टर चटर्जी कहते हैं, "ऐसी किसी योजना की कामयाबी के लिए पहले स्वास्थ्य क्षेत्र का इलाज जरूरी है. उसकी बदहाली दूर किए बिना स्वास्थ्य सेवाओं तक आम लोगों की पहुंच सुलभ करना संभव नहीं होगा."