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खनन के नुकसान से बचने का एक इलाज खोजा तो है

शिवप्रसाद जोशी
२९ अप्रैल २०२१

खनन के दुष्प्रभावों से निपटने के लिए माइनिंग और इकोलजी के सह-विकास की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं. इसके तहत छोटी अवधि वाले पेड़ उगाये जाने का विचार है लेकिन पूरी प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों की भागीदारी जरूरी है.

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फाइल फोटो: पश्चिम बंगाल में अवैध कोयला खननतस्वीर: DW/P. Mani

भारत सरकार के वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के तहत गठित वन सलाहकार समिति ने खनन और पारिस्थितिकी के सह विकास की अवधारणा को आजमाने के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट चलाने की सिफारिश की है. इस सिलसिले में ओडीशा में एक खनन प्रोजेक्ट को सैद्धांतिक तौर पर मंजूरी दी गयी है. समिति के पैनल का सुझाव है कि इस प्रोजेक्ट के तहत माइनिंग लीज के दायरे में एक डिग्रेडड यानी अवनत जंगल क्षेत्र लिया जाए और उस पर रोटेशन वाली कम अवधि की फॉरेस्ट्री फसलें उगायी जाएं ताकि पारिस्थितिकीय व्यवस्थाएं बनी रह सकें.

वन सलाहकार समिति की 'हां' के मायने

वन भूमि में निर्माण और खनन की क्लियरन्स के लिए जो पांच एजेंडे वन सलाहकार समिति के पास पिछले महीने आए थे उनमें ओडीशा का मामला पहला था. हालांकि पांचों मामलों में एक लिहाज से देखा जाए तो तमाम स्वीकृतियां और मंजूरी कुछ शर्तों के साथ निर्माण कार्यों के ही पक्ष में थीं. ओडीशा खनन निगम ने कियोनझार क्षेत्र में 1200 हेक्टेयर से ज्यादा की वन भूमि का इस्तेमाल गैर वानिकी कार्यों के लिए करने की अपील लगायी थी जहां लौह अयस्क और मैंगनीज अयस्क की खदानें हैं. उसी अपील पर अपनी मंजूरी देते हुए समिति ने कहा कि क्या संभव है कि खनन भी होता रहे और उसी के दायरे में स्थानीय पारिस्थितिकी भी बची रहे. इस इलाके में खनन प्रोजेक्ट के लिए जिस वन भूमि की जरूरत है उसमें से 957 हेक्टेयर सघन वन है और 175 हेक्टेयर खुला वन.

खबरों के मुताबिक पैनल का कहना है कि क्योंकि ओडीशा खनन निगम ने खनन के लिए समस्त क्षेत्र के एकबारगी इस्तेमाल का प्रस्ताव नहीं किया है तो उसके कुछ हिस्सों में लीज शुरू होने के 10 या 20 साल बाद काम शुरू किया जा सकता और तब तक उस अंतरिम अवधि में शॉर्ट रोटेशन फॉरेस्ट्री फसल यानी पॉप्लर, यूकेलिप्टस और विलो जैसे पेड़ उगाए जा सकते हैं जो एक निश्चित अंतराल में तात्कालिक जरूरतों के लिए काटे जाते रह सकते हैं. इनकी कटाई हर तीन से चार साल के दरमियान की जाती है. पैनल का कहना है कि इसका लीजधारकों को फायदा भी होगा और वन पारिस्थितिकी बनी रह सकेगी.

वन सलाहकार समितनि ने भारतीय वानिकी अनुसंधान और शिक्षा परिषद् (आईसीएफआरई) और भारतीय वन प्रबंधन संस्थान (आईआईएफएम) की देखरेख में पायलट प्रोजेक्ट चलाने की सिफारिश की है.

समिति का दावा है कि फॉरेस्ट्री फसल लगाने से जो पारिस्थितिकीय व्यवस्थाएं बनी रहेंगी उनमें जैव विविधता संरक्षण, कार्बन भंडारण, साफ पेयजल दूसरे नॉन टिंबर उत्पादों की उपलब्धता शामिल हैं. उसका मानना है कि अगर सफल रही तो यही व्यवस्था अन्य खनन इलाकों में भी लागू की जा सकती है. लेकिन बुनियादी सवाल यही है कि क्या ऐसा हो पाना संभव है, क्या खनन और पर्यावरण एक साथ जारी रह सकते हैं. खनन और पर्यावरण के संतुलन की ये पहल तो समझी जा सकती है लेकिन स्थानीय समुदायों के वन अधिकारों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए था.

समिति ने निगम से कहा है कि वो खनन क्षेत्र से अतिक्रमण करने वालों को हटाए और ये ध्यान रखे कि वे वन भूमि में पुनर्वासित न किये जा सकें. अब ये अतिक्रमण करने वालों से समिति का आशय क्या जंगल की मूल निवासी जनजातियों से है?

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कठिन है खनन और पर्यावरण का संतुलन

खनन के पर्यावरण पर दुष्प्रभावों पर लंबे समय से बहस होती रही है और खनन से होने वाली कई गहन सामाजिक पर्यावरणीय और सांस्कृतिक समस्याओं को भी समय-समय पर रेखांकित किया जाता रहा है. स्थानीय समुदायों के विस्थापन का सवाल भी विकट है. वे जल जंगल जमीन से हमेशा के लिए अलग हो जाते हैं.

अब ये एक नैतिक प्रश्न भी है. क्या खनन जैसी महत्त्वपूर्ण गतिविधि की विस्थापन और पर्यावरणीय नुकसान के रूप में कीमत अदा करना लाजिमी होता है या इससे बचा जा सकता है या खनन भी हो सके और इकोलजी की हिफाजत साथ साथ चल सके जैसा कि समिति ने ताजा सुझाव दिया है.

पर्यावरणवादी विशेषज्ञों का मानना है कि वन अधिकार अधिनियम का अनुपालन सुनिश्चित किए बगैर माइनिंग और इकोलजी के सह-विकास का कोई मतलब नहीं है. खनन और खनिज विकास और नियमन अधिनियम 2021 के संशोधनों को लेकर भी सवाल उठाए जाते रहे हैं.

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी निर्माण या खनन गतिविधि का एक दूरगामी और गहरा असर तो पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर पड़ता ही है. अब चुनौती यही है कि दोनों के बीच एक संतुलन बनाया रखा जा सके. या किसी भी ऐसी विकास और अर्थव्यवस्था में वृद्धि केंद्रित गतिविधि के दुष्प्रभावों को न्यूनतम रखे जा सके. भारत जैसे विकासशील देश ऐसे विकट सवालों से जूझ रहे हैं. लेकिन ये भी सच है कि ये सारी बहस फिलहाल विकास की कथित अपरिहार्यता के पक्ष में ही मुड़ती जा रही है.

इसी का नतीजा है कि पहाड़ों से लेकर जंगलों और नदियों तक जैव विविधता के समक्ष बेतहाशा निर्माण और खनन गतिविधियां एक निर्णायक चुनौती बन कर उभरी हैं, जैव विविधता पर मंडराता खतरा और स्थानीय तापमानों में वृद्धि या उलटफेर के रूप में सामने आ रहा है जिसकी परिणिति अतिवृष्टि, बाढ़, भूस्खलन, सूखे और ग्लेशियरों के पिघलने की दर में आ रही तेजी के रूप में देखा जाने लगा है. इन कुदरती परिघटनाओं के अलावा विस्थापन, भुखमरी, गरीबी, बीमारी, महामारी, संक्रमण और प्रदूषण जैसे खतरे भी उत्तरोत्तर बढ़ते जा रहे हैं.

 

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