क्या पाकिस्तानी मुसलमान औरों से बेहतर मुसलमान हैं?
२४ अप्रैल २०२०पाकिस्तानी सरकार की कोशिश थी कि नए कोरोना वायरस के फैलाव को रोकने के लिए रमजान के पवित्र महीने में लोग घरों में ही रहें और नमाज, सहरी, इफ्तारी और तराविज जैसी धार्मिक गतिविधियों को पूरा करें. लेकिन एक बार फिर तमाम कोशिशों के बावजूद पाकिस्तान का धार्मिक समुदाय "जीत गया". आखिरकार पाकिस्तानी सरकार ने मस्जिदों और इमामबाड़ों में रमजान के दौरान तरावीज और इबादत की सशर्त इजाजत दे दी है.
सवाल यह है कि पाकिस्तान के धार्मिक नेता मस्जिदों में जाने पर जोर क्यों दे रहे हैं? क्या यह सिर्फ एक धार्मिक मुद्दा है? या फिर इसके पीछे सामाजिक, धार्मिक और मानसिक कारक भी काम कर रहे हैं?
सऊदी अरब के वरिष्ठ धार्मिक विद्वानों की परिषद पहले ही कह चुकी है कि अगर कोविड-19 के फैलने की आशंका है तो ना सिर्फ सऊदी मुसलमान बल्कि दुनिया भर के तमाम मुसलमान मस्जिदों का रुख ना करें और सभी धार्मिक क्रियाकलापों को अपने घरों पर ही अंजाम दें.
सऊदी अरब की सर्वोच्च धार्मिक परिषद का कहना है कि लोगों की जान बचाना बहुत जरूरी है. लेकिन पाकिस्तान में सोशल मीडिया पर चल रही तस्वीरों में हमने देखा कि इस्लामाबाद की लाल मस्जिद में नमाजियों की एक बड़ी तादाद ने पांव से पांव जोड़ कर जुमे की नमाज अदा की.
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धर्मभीरू हैं पाकिस्तानी
पाकिस्तान के मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक हालात को देखें तो बेशक लोगों को मजबूर नहीं किया जा सकता है कि वे अपने धार्मिक क्रिया कलाप घरों के भीतर ही करें क्योंकि अब ये मामला सिर्फ कुछ धार्मिक नेताओं का नहीं रहा है. ज्यादातर लोग यही मानते हैं कि मस्जिद में जाकर अल्लाह के सामने हाजिरी देना जरूरी है और मौत तो एक दिन आनी ही है. बिल्कुल मौत तो आएगी ही, लेकिन इस्लाम में आत्महत्या करना भी तो हराम है.
क्या पाकिस्तानी मुसलमान सऊदी अरब, ईरान और दूसरे इस्लामी देशों के मुसलमानों के मुकाबले ज्यादा बेहतर मुसलमान हैं? और क्या मस्जिदों और इमामबाड़ों में जाकर ही इस बात को साबित किया जा सकता है?
कहानी पुरानी है और कड़वी भी है. पूर्व सैन्य शासक जिया उल हक के दौर में इस्लामीकरण, सोवियत जंग में मुजाहिदीन और फिर अफगान जंग में तालिबान की तैयारी या फिर कश्मीर के मोर्च पर "आजादी मांगने वालों" की ट्रेनिंग. इस सब की भी एक अर्थव्यवस्था रही है. लेकिन इसका फायदा आम मुसलमानों को बिल्कुल नहीं हुआ. चंद गिरोहों ने इसकी मलाई खाई है और खा रहे हैं.
सैन्य प्रतिष्ठान के हित
सैन्य प्रतिष्ठान ने बीते कई दशकों में इस्लामी शिक्षा का गलत इस्तेमाल किया है और स्थिति यह है कि लोग इस बारे में सोचते तो हैं, लेकिन मुंह खोलने की हिम्मत नहीं करते. दूसरे धर्मों की तरह इस्लाम भी उदारता की सीख देता है, ना कि चरमपंथ की.
लॉकडाउन की वजह से पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को खतरा है. अगर अमेरिका और यूरोप की तरह नया कोरोना वायरस पाकिस्तान में भी फैल गया तो आम जनता को इसके गंभीर नतीजे भुगतने होंगे. 1.8 करोड़ नौकरियों पर पहले ही खतरा मंडरा रहा है.
इस वैश्विक महामारी ने सोचने पर मजबूर कर दिया है कि जहां कई क्षेत्रों में बेहतरी लाने की जरूरत है, वहीं इस्लाम की सच्ची शिक्षाओं पर अमल करना भी जरूरी है. अच्छे और नेक मुसलमान होने के लिए सिर्फ मस्जिद जाना ही जरूरी नहीं है बल्कि इससे बढ़कर दूसरे मुसलमानों की जिंदगियों का ख्याल रखना जरूरी है.
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