प्रियंका गांधी से बढ़ेंगी बीजेपी की मुश्किलें?
२३ जनवरी २०१९प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभारी राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया है जहां कांग्रेस का फिलहाल बहुत ज्यादा प्रभाव नहीं है. लेकिन इसी क्षेत्र में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का क्षेत्र गोरखपुर है और यहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनावक्षेत्र बनारस भी है. अभी तक प्रियंका गांधी ने अपने आपको केवल रायबरेली और अमेठी में चुनाव प्रचार करने तक ही सीमित रखा था. लेकिन अब उन्हें कांग्रेस संगठन में एक अखिल भारतीय भूमिका दी गई है और उनकी तात्कालिक जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश में होने जा रहे लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर बनाने की है. पिछले चुनावों में भी यह चर्चा रहती थी कि वे पर्दे के पीछे से उम्मीदवारों के चयन और चुनावी रणनीति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया करती थीं. लेकिन अब यह अनुमान की बात नहीं रह गई है.
जिन्होंने भी प्रियंका को चुनाव सभाओं और रैलियों को संबोधित करते हुए देखा-सुना है, उन सभी की यह राय है कि एक सार्वजनिक वक्ता के रूप में वे बेहद प्रभावशाली हैं. श्रोताओं के साथ वे बिना एक भी मिनट गंवाए संवाद स्थापित करने की कला में कुशल हैं, उनकी हिंदी प्रवाहपूर्ण और आम बोलचाल वाली है और हंसी-मजाक और व्यंग्य का भी इस्तेमाल वे बखूबी करती हैं. अनेक उनमें उनकी दादी इंदिरा गांधी की छवि की झलक भी देखते हैं और यह एक सच्चाई है कि आज भी इंदिरा गांधी की लोकप्रियता बरकरार है.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कार्यकर्ता कई दशकों से पस्त पड़ा था. पिछले दिनों हुए विधानसभा चुनावों में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे तीन महत्वपूर्ण राज्यों में मिली जीत से उसमें कुछ उत्साह जगा है. अब प्रियंका के राजनीति में आने से उसका मनोबल कई गुना बढ़ेगा और कांग्रेस संगठन की मशीनरी में एक बार फिर जान पड़ने की उम्मीद बंध जाएगी. इस बात की संभावना भी लगभग स्पष्ट है कि वे रायबरेली या अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ेंगी और अपने क्षेत्र के अलावा पूर्वी उत्तर प्रदेश से जमकर चुनाव प्रचार करेंगी. ऐसे में स्वयं प्रधानमंत्री मोदी के लिए उनकी उपस्थिति एक बड़ी चुनौती बन जाएगी. महिला मतदाता का रुझान भी प्रियंका की ओर होना स्वाभाविक है.
कांग्रेस उत्तर प्रदेश में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. सपा-बसपा गठबंधन से बाहर रहकर उसने सभी अस्सी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा की है. यूं वह गठबंधन के बाहर है लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में उसके सपा या बसपा के साथ दुश्मनी के नहीं, दोस्ती के रिश्ते हैं. बहुत संभव है कि वह लोकसभा चुनाव में सपा और बसपा के वोटों के बजाय बीजेपी के वोटों में ही अधिक सेंध लगाए. ऐसे में बीजेपी की मुश्किलें और अधिक बढ़ जाएंगी. यूं भी पिछले चुनाव में उसे अस्सी में से बहत्तर सीटें मिली थीं और इस बार उसकी सीटें घटेंगी ही, बढ़ेंगी नहीं. यदि वह उत्तर प्रदेश का मैदान हार गई, तो फिर केंद्र में बीजेपी के लिए सरकार बनाना काफी कठिन होगा.
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