किशोर उम्र की गुत्थियों को सुलझाने की चुनौती
२२ फ़रवरी २०१७एक देश की पहचान सिर्फ उसके भूगोल, उसके पराक्रम या उसके वैभव से नहीं बनती है. सही मायनों में एक प्रगतिशील राष्ट्र का सपना, एक श्रेष्ठ नागरिक समुदाय के बिना अधूरा है. जब जाति, धर्म, संप्रदाय के बंटवारे और झगड़ों, अमीर-गरीब और संसाधनों पर हक के असंतुलन, यौन वर्चस्व और तमाम हिंसाओं से देश के रूप में भारत की अस्मिता लहूलुहान हो रही है, ऐसे समय में कुछ दूरदर्शी और भविष्योन्मुखी पहल, हालात को बेहतर बनाने की दिशा में काम कर सकती हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय की किशोर जागरूकता योजना ऐसी ही एक पहल है. किशोर उम्र से जुड़े मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और शारीरिक बदलावों और दुविधाओं पर बहुत कुछ लिखा, बोला जा चुका है. लेकिन नासमझी और कूपमंडूकता की कुछ दीवारें जस की तस हैं. उन्हें गिराया जाना जरूरी है ताकि किशोर एक बंद समाज में किसी संकुचित नजरिए के साथ नहीं बल्कि खुली हवा में सांस लेते हुए बड़े हो सकें और आगे चलकर देश के बेहतर नागरिक भी बन सकें.
समलैंगिकता को लेकर अभी देश में बहस जारी है, अदालतों में भी इसकी स्वीकार्यता को लेकर निर्णय नहीं हो सके हैं, ऐसे में ये एक स्वागतयोग्य कदम है कि स्वास्थ्य मंत्रालय ने जो योजना तैयार की है उसके मसौदे में ये साफ बताया गया है कि अपोजिट सेक्स की तरह सेम सेक्स के बीच भी प्यार और अनुराग हो सकता है, इसमें कुछ भी असहज नहीं है. किशोर लड़कों का अपनी सहपाठियों-मित्रों के साथ कैसा व्यवहार अपेक्षित है, इसकी भी टिप्स हैं. किशोर उम्र के स्वाभाविक यौन आकर्षण के बीच कुछ सामाजिक विवेक की ताकीद की गई है. जैसे कि किसी लड़की की 'ना' का मतलब 'ना' ही होता है, ये बात लड़कों को जेहन में रखनी चाहिए. मसौदे में लिखा गया है कि संबंध तभी सार्थक हैं जब आपसी सहमति, भरोसे और सम्मान पर आधारित हों. ये बातें बड़ी फिल्मी या किताबी लग सकती हैं लेकिन जिस तरह के अत्यन्त स्वच्छंद, भीषण उपभोक्तावादी समय में हम रह रहे हैं, और मास मीडिया अपने विकराल रूपों में चौतरफा बरस रहा है, ऐसे में ये बातें दो टूक बता दी जाएं और पहले ही बता दी जाएं तो नागरिक विवेक बेहतर बनेगा. इसी में लड़के और लड़की के निजी अधिकारों और निजी दायरों के प्रश्न भी जुड़े हैं.
हेल्थ मिनिस्ट्री के इस रिसोर्स मैटीरियल में लैंगिक समानता का भी जिक्र है. कहा गया है कि लड़का होने का मतलब ये नहीं कि उसे सख्त, क्रूर, लंबा चौड़ा, सीना ताने, छाती फुलाए, गर्जनतर्जन और कूदफांद ही करते रहना है. उसमें स्त्रियोचित गुण भी हो सकते हैं, वो सौम्य, शर्मीला, संकोची, मृदुभाषी और संवेदनशील भी हो सकता है, वो भी बात बेबात रो सकता है, भावुक हो सकता है. खाना पकाना, कढ़ाई-सिलाई करना उसकी भी जिम्मेदारी या शौक हो सकता है. ये सब नामर्दी की निशानियां नहीं हैं. ठीक इसी तरह लड़कियों को भी बाहर घूमने, कूदफांद करने, लड़कों जैसे कपड़े पहनने या खेल खेलने का शौक हो सकता है. इस तरह औरतों के खिलाफ असमानता और पूर्वाग्रहों के बारे में बताया गया है.
देश में इस समय 26 करोड़ किशोर है. मंत्रालय की कोशिश स्वास्थ्य को सामाजिकता से जोड़कर इस आबादी तक पहुंचने की है. डेढ़ लाख से ज्यादा पिअर एजुकेटर्स यानी किशोर शिक्षकों को ही इस अभियान में लगाया जाएगा जिन्हें "साथिया” नाम दिया गया है. स्वास्थ्य मंत्रालय से उनकी ट्रेनिंग होगी. स्त्री पुरुष समानता के ब्यौरे देता हुआ ये मसौदा और आगे जाकर यौन मामलों पर भी किशोरों की मदद करता दिखता है. सुरक्षित सेक्स के उपाय, एचआईवी संक्रमण से बचाव, यौन संबंधों से जुड़ी भ्रांतियों के बारे में एक खुली जानकारी दी गई है. और तो और हस्तमैथुन को भी सेफ सेक्स के एक विकल्प के रूप में दर्ज किया गया है.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ये योजना सभी राज्यों को भेजी जा रही है जो इसे तमाम स्कूलों तक पहुंचाएंगें. एक प्रगतिशील रिसोर्स सामग्री तो तैयार कर ली गई है, वितरण के लिए तैयार भी है, लेकिन अब सवाल ये है कि राज्य सरकारें इसे किस तरह और कितनी तत्परता से लागू करती हैं. किशोरों को शिक्षित करने वाले साथी-वॉलंटियरों के लिए मानदेय की क्या व्यवस्था होगी, उन्हें ट्रेनिंग तो दे दी जाएगी लेकिन उनके काम के स्तर की जांच कौन करेगा. ये कैसे पता चलेगा कि लक्षित समूह इस अभियान से कितना लाभान्वित हुआ. इन सब बातों की विस्तृत रूपरेखा भी मंत्रालय को तैयार कर लेनी चाहिए. दूसरी बड़ी आशंका इस बात की है कि कई जगह ऐसी जागरुकता वाली जानकारियों को अश्लील या संस्कृति के लिए अपमानजनक बताकर खारिज भी किया जा सकता है. इस योजना के निर्माताओं को सोचना होगा कि हर किस्म के खुलेपन और समानता का विरोध करने वाले कट्टरपंथी लोग समाज और सिस्टम के अंदर भी फैले हुए हैं, ऐसे में उनसे मुकाबला करने का हौसला भी रखना होगा.