कितनी तैयार अफगान सेना
३० मई २०१३मदद तुरंत आ जाती है. अमेरिकी हेलिकॉप्टर उन्हें वहां से निकालते हैं और कंधार के अस्पताल पहुंचाते हैं. इस इलाके में सबसे बड़ा अस्पताल कंधार में ही है. मलिक को घुटने के नीचे पैर गंवाना पड़ता है. अगर फौरन मदद न मिलती, तो शायद जान गंवानी पड़ती. उसके तीनों साथी मारे गए. मलिक का कहना है, "मैं देख रहा था कि हमले में उसका दिमाग निकल कर जमीन पर गिर गया."
अमेरिकी सेना अगले साल देश छोड़ रही है और उससे पहले अफगान सैनिकों को अपने दम पर काम करने की ट्रेनिंग दी जा रही है. पिछले 12 साल में यह पहला मौका है, जब अफगानिस्तान के 90 फीसदी हिस्से में सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद अफगानिस्तान की सेना के जिम्मे आ रही है.
लेकिन अभी भी वे हवाई मदद के लिए बुरी तरह अंतरराष्ट्रीय सेना पर निर्भर हैं. घायलों को अस्पताल पहुंचाने या मौके पर फंसे फौजियों तक मदद पहुंचाने में वायु सेना जरूरी है.
सिर्फ सलाह मिलेगी
आने वाले दिनों में नाटो और अमेरिकी सेना वहां सिर्फ मांगने पर सलाह देगी. इसके बाद पता चलेगा कि उन्हें ट्रेनिंग की कितनी जरूरत है. समझा जाता है कि अगले साल के बाद नाटो और अमेरिका के सिर्फ 8000 से 10,000 सैनिक बचेंगे, जिनमें से ज्यादातर ट्रेनर होंगे. नाटो से हजारों सैनिकों की मांग की गई थी लेकिन अब तक सिर्फ जर्मनी ने 800 सैनिक देने की बात मानी है.
अमेरिकी सेना का मानना है कि करीब साढ़े तीन लाख अफगान सैनिकों को बहुत तेजी से सीखने की जरूरत है. पूर्व के नंगरहार प्रांत में अमेरिका की फर्स्ट ब्रिगेड कॉमबैट टीम तैनात है. वह अफगान राष्ट्रीय सेना को सलाह दे रही है. लेफ्टिनेंट कर्नल मैथ्यू स्टेडर ने कहा कि अफगान सेना को खुफिया जानकारी, निगरानी और दूसरे ऑपरेशन के लिए सलाह की जरूरत है.
स्टेडर का कहना है, "मुझे लगता है कि वे अच्छा कर रहे हैं. लेकिन अमेरिकियों से अलग तरह से काम कर रहे हैं." अफगान सेना अपनी रसद और ईंधन तथा पानी की सप्लाई कर सकते हैं. लेकिन उन्हें योजना बनाने, लॉजिस्टिक और दूसरी चीजों में दिक्कत हो रही है. स्टेडर का कहना है कि वह जिस ब्रिगेड को देख रहे हैं, उसे कम से कम एक साल और ट्रेनिंग की जरूरत है. उसके बाद ही वह स्वतंत्र रूप से काम कर पाएगा.
उन्होंने कहा, "कई सालों में हमने अफगानों को मदद पर निर्भर बना दिया, अब सलाहकार के तौर पर हमें उसे फिर से काम में लाना है." नाटो और अमेरिकी सेना पिछले 12 साल से अफगानिस्तान में तैनात है. उससे पहले कई सालों तक देश में तालिबान का दबदबा रहा था. यानी संगठित सेना बरसों से देश में नहीं है.
डर का माहौल
हालांकि अफगानिस्तान को अब भी उम्मीद है. अपने किलेबंद दफ्तर में बैठे जनरल अब्दुल राजिक दक्षिणी कंधार प्रांत के पुलिस प्रमुख हैं. यह अफगानिस्तान में सबसे खतरनाक नौकरियों में एक है. फिर भी उनका कहना है कि वह उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जब विदेशी सेनाएं देश छोड़ कर जाएंगी, "नाटो का जाना हमारे लिए अच्छी चीज है क्योंकि तब हमारी धरती और हमारा शासन हमारे हाथों में लौटेगा."
अफगान सेना और अमेरिकी कर्ता-धर्ताओं के बीच हमेशा मुश्किल रिश्ते रहे हैं. राष्ट्रपति हामिद करजई भी कई बार सार्वजनिक तौर पर अमेरिकी सेना के खिलाफ बयान दे चुके हैं. कई बार तो अफगान पुलिस ने विदेशी सैनिकों पर हमले भी किए हैं. इसके बाद अफगान सेना ने उन जगहों पर विदेशी ट्रेनरों पर पाबंदी लगा दी है, जहां जिंदा कारतूस से ट्रेनिंग दी जाती है. राजिक का कहना है कि नई भर्तियों से उनके अंदर विश्वास आ रहा है.
पिछले पांच साल में अफगानिस्तान की प्रमुख पुलिस ट्रेनिंग अकादमी ने राजधानी काबुल में अपना काम शुरू कर दिया है, जहां सैनिकों को चार साल की ट्रेनिंग दी जाती है. यहां के सिलेबस में मानवाधिकार और नैतिकता जैसे कोर्स भी शामिल किए गए हैं. पहले के सैनिक अशिक्षित होते थे, लेकिन ताजा भर्ती होने वाले सैनिक जरूर पढ़े लिखे होते हैं.
बदल रहे हैं सैनिक
राजिक बताते हैं, "2007, 2008 से पहले ढांचा अधूरा था. पुलिस पर कोई नियंत्रण नहीं था. वे कुछ भी कर सकते थे. वे समझते थे कि उनके पास असीमित अधिकार हैं. लेकिन अब वे संयमित हैं. उनके पास सिर्फ गिरफ्तार करने का अधिकार है. शिक्षा का स्तर भी बढ़ रहा है."
अफगान सेना के लिए हर साल हिंसा लेकर आती है. इस साल भी 15 मई तक 441 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं. पिछले साल इतने समय में इससे आधे सैनिक मारे गए थे. हालांकि इस साल इतने समय में सिर्फ 58 अमेरिकी सैनिक मारे गए, जबकि पिछले साल इनकी संख्या 153 थी.
कंधार में नागरिक अस्पताल के कमांडर जनरल सैयद आसिम का कहना है, "नए साल के बाद से हमें काफी नुकसान उठाना पड़ा है." उन्होंने बताया कि अस्पताल में 400 बिस्तर हैं और हर बिस्तर पर युद्धपीड़ित ही पड़ा है.
वह इमरजेंसी के पास एक ऐसे बिस्तर के पास रुकते हैं, जहां 19 साल के हमीदुल्लाह को उसके बिस्तर की रॉड से हथकड़ी से बांध कर रखा गया है. वह संदिग्ध तालिबान लड़ाका है. उसके पेट, हाथ और पैर में गोली लगी है. उसका कहना है कि वह हेलमंद प्रांत में गिरिस्क के मैदान में था, तभी अमेरिकी सैनिकों और तालिबान के बीच संघर्ष शुरू हो गया, "मुझे नहीं पता कि मुझे किसने मारा. चारों तरफ से गोलियां बरस रही थीं." जब गोलीबारी रुकी, तो उसके चाचा ने उसे अस्पताल पहुंचाया.
हमीदुल्लाह बताता है कि किस तरह उसके रिश्तेदारों को स्थानीय अधिकारियों से चिट्ठी लेनी पड़ रही है कि वह एक किसान है, कोई तालिबान नहीं, "अभी तक किसी ने मुझसे सवाल नहीं पूछा है. मुझे नहीं पता कि कौन लड़ रहा था. लेकिन हमारे खेत के पास विदेशियों की एक जगह है."
पुलिस प्रमुख राजिक का मानना है कि तालिबान से बातचीत करके ही इस मसले को सुलझाया जा सकता है, "वे हमारे लोग हैं. कई लोगों का कहना है कि उनके पास भी विकल्प नहीं है क्योंकि एक बार आप बंदूक उठा लेते हैं, तो फिर इसे रखना आसान नहीं होता."
एजेए/एमजे (एपी)