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कांग्रेस की ऐतिहासिक हार क्यों

१७ मई २०१४

भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरा देश अन्ना के साथ आ रहा था, तब कांग्रेस इसे साजिश बता रही थी. महंगाई गला घोंट रही थी तो कुछ चुनिंदा रातों रात अरबपति बनते गए. पार्टी में बेटों की बाढ़ आ गई. कांग्रेस की यह हालत ऐसे ही नहीं हुई.

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तस्वीर: UNI

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से अगर यह पूछा जाए कि जिस घर में दो स्कूल जाने वाले बच्चे हों, एक ही कमाने वाला हो, उसका महीने भर का खर्च कितना होगा. पहले तो वो शायद इस सवाल को पूछने का मौका भी नहीं देंगे, मौका मिल भी गया तो शायद सटीक उत्तर नहीं दे पाएंगे. जमीन से जुड़े नेता जानते हैं कि आर्थिक विकास का स्वाद चख चुके भारतीय परिवार के लिए ये सवाल कितना अहम है. राजनीति में जमीनी हकीकत से भटकाव का मतलब यही है, करारी हार.

कांग्रेस अगर इस ऐतिहासिक हार से सबक सीखना चाहती है तो पार्टी को सबसे पहले सोनिया गांधी और राहुल गांधी से तल्ख सवाल करने होंगे. नतीजे को सामूहिक हार कहने के बजाए पता करना होगा कि उनकी कौन सी हरकतें पार्टी को पांच साल के अंदर अर्श से फर्श तक ले आई. क्या उन्हें कुछ समझ नहीं आया. क्या वो भारतीय जनता के दुख दर्द को भांपने में नाकाम रहे.

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लगातार राहुल गांधी को नई जिम्मेदारी देने की मंशा जता रहे थे, लेकिन राहुल बढ़कर एक भी जिम्मेदारी लेने आगे नहीं आए. वे कहते रहे कि संगठन मजबूत करना है. संगठन कितना मजबूत हुआ, ये 16 मई को पता चल गया.

असल में बीते दो-तीन साल से फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी चुटकुलों का पात्र बनने लगे थे. भ्रष्टाचार, विकास, महंगाई, नक्सलवाद, महिलाओं की सुरक्षा, कश्मीर, सड़क, बिजली और पानी जैसे मुद्दों पर उनकी चुप्पी युवाओं से भरे भारत को निराश कर रही थी. लोग जानना चाहते थे कि राहुल गांधी किन मुद्दों के बारे में क्या सोचते हैं, लेकिन उनके मुंह से अक्सर रटी रटाई बातें ही निकलीं. इससे युवा वर्ग में ऐसा संदेश जाने लगा जैसे उन्हें समझ ही नहीं है.

2जी घोटाले, कॉमवेल्थ घोटाले और कोयला घोटाले जैसे दाग सामने आ रहे थे, लेकिन राहुल गांधी के मुंह से एक शब्द नहीं निकला. पार्टी नैतिक जिम्मेदारी लेकर आरोपियों को शंट करती नहीं दिखाई पड़ी. सरकार जांच कराने तक से बचती दिखी. सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख से इन मामलों की जांच आगे बढ़ी. दिल्ली के रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन को भी उसने बीजेपी या विरोधियों की साजिश करार दिया. टीवी पर आंदोलन की आलोचना करने वाले नेताओं की भाषा से लगातार अहंकार टपक रहा था.

जनता महंगाई से परेशान थी वहीं कांग्रेस और उसके सहयोगी नेता लगातार कहते रहे कि 10 रुपये में पेट भर जाता है, 32 रुपया एक दिन के लिए काफी है. ऐसे बयानों ने घाव पर नमक छि़ड़का. आम जनता की कराह के बीच कांग्रेस शासित राज्यों में राजनीति में बेटों की बाढ़ आ गई. वो अहम पदों पर सवार हो गए. राज्य सरकारों में बेटों और दिल्ली का दखल साफ नजर आने लगा.

बीते दो-तीन साल से लगातार केंद्र सरकार के खिलाफ असंतोष उबल रहा था. अन्ना के पीछे खड़ी भीड़ और निर्भया कांड के बाद सड़कों पर आए लोग केंद्र को दिखा रहे थे कि जनता किस झल्लाहट से गुजर रही है. इस असंतोष को परिवर्तन में बदलने के लिए एक चेहरे की जरूरत थी. रामलीला मैदान में यह चेहरा अन्ना हजारे बने. फिर दिल्ली के मतदाताओं को अरविंद केजरीवाल में वो उम्मीद दिखी, लेकिन केजरीवाल सरकार के इस्तीफे ने लोगों को निराश किया. निराशा के तमाम बादलों को बीच लोगों को नरेंद्र मोदी में उम्मीद दिखाई दी. दामन में दाग होने के बावजूद मोदी ने अपना एजेंडा ठोस ढंग से सामने रखा. सही या गलत, लेकिन वो हर मुद्दे पर बोले. उन्होंने अपने राज्य और बीजेपी शासित दूसरे राज्यों में विकास का हवाला देते हुए एक जमीन तैयार की. ऐसी जमीन जिसका जनता इंतजार कर रही थी.

ब्लॉग: ओंकार सिंह जनौटी

संपादन: महेश झा