कल्पना में खाओ सच में वजन घटाओ
२० दिसम्बर २०१०अमेरिका की कार्नेगी मेलन यूनिवर्सिटी में शोधकर्ताओं का कहना है कि जब लोग किसी खास खाने के बारे में पूछते हैं तो उन्हें भूख नहीं लगती बल्कि इस खाने के बारे में उनकी चाहत कम हो जाती है.
साइंस नाम की पत्रिका में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि यह विचार कि हैम्बर्गर के बारे में सोचना भूख बढ़ाता है यह गलत है. कई पत्र पत्रिकाओं में यह भी कहा जाता है कि किसी खाने के बारे में सोचने से उसे खाने का मन करता है.
अधिकतर वैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि खाने के बारे में सोचना शरीर में वही सब क्रिया करता है जो खाते समय, उसे सूंघते समय या देखते समय होती हैं. लेकिन नई शोध को प्रस्तुत करने वाले कैरी मोरवेज मानते हैं कि जितना ज्यादा इन्सान खाने के बारे में सोचता है उतना कम उसे खाने की इच्छा होती है.
नोरवेज ने बताया कि सबूत इस ओर इशारा करते हैं कि जब कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद का खाना खाने की कल्पना करता है और कल्पना को वह पूरी तरह से अनुभव करता है, तब उसे उस खाने की कम इच्छा होगी.
खाने के बारे में सोचना, कि उसका स्वाद कैसा होगा, कैसी खुशबू होगी और वह कैसा दिखेगा. यह सब सोच कर निश्चित ही हमारी भूख बढ़ती है लेकिन जब हम यह सोचने लगते हैं कि मैं अपनी पसंद का खाना खा रहा हूं, तो इसकी इच्छा कम हो जाती है.
अमेरिकी राज्य पेनसिल्वेनिया के पिट्सबर्ग में समाज और निर्णय विज्ञान (सोशल एंड डिसिजन साइंसेस) के असिस्टेंट प्रोफेसर मोरवेज ने सहयोगियों के साथ मिलकर एक प्रयोग किया. इसमें उन्होंने एक ग्रुप को कहा गया वह कल्पना करें कि वह 33 सिक्के एक एक करके वॉशिंग मशीन में डाल रहे हैं. दूसरे ग्रुप को कहा गया कि वह कल्पना करे कि वह 30 सिक्के वॉशिंग मशीन में डाल रहे हैं और तीन एम एंड एम कैंडी एक एक करके खा रहे हैं. जबकि तीसरे ग्रुप को कहा गया कि वह कल्पना करे कि उन्होंने तीन सिक्के वॉशिंग मशीन में डाले और एक एक करके 30 कैंडी खाईं.
इसके बाद तीनों ग्रुप्स को कैंडी से भरा हुआ एक बाउल दिया गया. तो उस ग्रुप के लोगों ने सबसे कम कैंडी खाई जिन्हें 30 कैंडी खाने की कल्पना करने को कहा गया था. रिसर्च टीम के योआखिम वोसगेरो ने बताया, "हमारे शोध में पता चलता है कि आदतें देखने, सूंघने, आवाज और स्पर्श से ही नहीं संचालित होतीं बल्कि इससे भी कि उपभोग का अनुभव कैसे लिया गया है."
वोसगेरो का कहना है कि कई बार किसी चीज के अनुभव की कल्पना करना सच में अनुभव करने जैसा ही होता है. यही नहीं अब तक की धारणा के विपरीत किसी बारे में सोचने और उसे सच में पाने के बीच अंतर भी बहुत कम होता है.
रिपोर्टः एजेंसियां/आभा एम
संपादनः वी कुमार