उत्साह के बीच आर्थिक मंदी की घबराहट
१९ दिसम्बर २०१२संयुक्त राष्ट्र ने वर्ल्ड 'इकोनोमिक सिचुएशन एंड प्रॉस्पेक्ट्स 2013' रिपोर्ट जारी की है. मंगलवार को जारी ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि 2012 में विश्व अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ी है. आशंका जताई गई है कि 2013 और 2014 में भी हालात ऐसे ही बने रहेंगे.
रिपोर्ट कहती है, "चीन और भारत, दोनों विकास को नुकसान पहुंचाने वाली ढांचागत समस्याओं से जूझ रहे हैं. लगातार महंगाई और बड़े वित्तीय घाटे की वजह से भारत और दक्षिण एशिया में नीतिगत बहाव की संभावनाएं सीमित हैं."
2013 में दक्षिण एशिया की विकास दर 4.4 फीसदी रहने का अनुमान है. दक्षिण एशिया में भारत ही ऐसा देश है जिसकी बेहतर अर्थव्यवस्था पूरी दुनिया की स्थिति को सुधारने में अहम भूमिका निभाती है, लेकिन फिलहाल भारत भी लड़खड़ाता दिख रहा है.
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक भारत में आर्थिक हालत सुधर तो रहे हैं लेकिन उसकी क्षमताओं से बहुत कम हैं. वहीं यूरोप और अमेरिका अब भी आर्थिक मंदी की जड़ बने हुए हैं.
छह महीने पहले यूएन कह चुका है कि 2013 में विश्व अर्थव्यवस्था 2.9 फीसदी की दर से बढ़ेगी. 2014 में इसमें तेजी आएगी और यह 3.9 फीसदी हो जाएगी. ताजा रिपोर्ट में इन पूर्वानुमानों को नीचे कर दिया गया है. अगले साल 2.4 और 2014 में 3.2 फीसदी की विकास दर का अंदाजा लगाया गया है. रिपोर्ट मौजूदा अर्थव्यवस्था को देखकर तैयार की गई है. अगर संकट हल नहीं हुआ या गहराया तो यह अंदाजे भी गलत साबित होंगे.
डर इस बात का है कि यूरोपीय संघ का कर्ज संकट और अमेरिका का वित्तीय घाटा इस मुश्किल को और घातक भी बना सकता है. यूरोपीय संघ के 27 देश कर्ज में डूबे हुए हैं. 17 देश यूरो जोन का हिस्सा हैं. इनमें से आयरलैंड, ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन और इटली की हालत बहुत खस्ता है. इन देशों का अपनी ज्यादातर कंपनियां बर्बाद हो गई हैं. बैंक कर्ज वसूल नहीं पा रहे हैं. पेंशन और अन्य सार्वजनिक जिम्मेदारियों में सरकार का बहुत पैसा खर्च हो रहा है, लेकिन खर्च के अनुपात में आय नहीं हो रही है.
2008 में विश्वव्यापी मंदी की शुरुआत अमेरिका से हुई. तब भारत समेत कई देशों के नेताओं ने कहा कि उन पर इसका बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ेगा. धीरे धीरे मंदी यूरोप पहुंची. यूरोप और अमेरिका की हालत खस्ता होते ही भारत, चीन, ब्राजील समेत कई उभरते देश मंदी की चपेट में आ गए. एक्सप्रेस ट्रेन की तरह भाग रही उनकी अर्थव्यवस्था लोकल ट्रेन बन गई. लाखों नौकरियां गईं, तनख्वाह में बढ़ोत्तरी थम गई. निर्यात गिरता गया और मंदी की आंच ने पूरी दुनिया को अपने चपेट में ले लिया. करीब ढाई साल बाद 2010 के मध्य से हालत कुछ सुधरने लगे. लेकिन अब एक बार फिर अलार्म बज रहा है.
ओएसजे/एजेए (पीटीआई)