असम के ये 40 लाख लोग नया साल कैसे मनायेंगे?
२२ दिसम्बर २०१८नूर मोहम्मद को यह सोच कर सारी रात नींद नहीं आती कि कहीं उनकी बीवी की नागरिकता ना छिन जाए, उन्हें नजरबंद कर दिया जाए और फिर देश के बाहर भेज दिया जाए. वो उन 40 लाख लोगों में शामिल हैं जिनका नाम नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन (एनआरसी) की प्रस्तावित सूची में शामिल है.
असम राज्य में यह सूची इसी साल जुलाई में तैयार हुई और जारी की गई. इस घटना के बाद से मुसलमानों के प्रति भेदभाव के आरोप लग रहे हैं और जातीय तनाव बढ़ गया है.
जिन लोगों के नाम इस सूची में नहीं हैं, उनकी नागरिकता और अधिकार छिन जाने का अंदेशा है. हालांकि वो दस्तावेज दिखा कर अपनी नागरिकता प्रमाणित कर सकते हैं लेकिन बहुत से लोगों के लिए यह मुमकिन नहीं है और अंतिम तारीख नजदीक आ रही है.
66 साल के नूर मोहम्मद धीमी कांपती आवाज में कहते हैं, "हम लोग असली भारतीय नागरिक हैं. मेरा, मेरे दो बेटों और एक बेटी का नाम तो सूची में है लेकिन बीवी का नहीं." इस सूची में उन लोगों के नाम नहीं हैं जो यह साबित नहीं कर सके कि वो 1971 के पहले भारत में थे. उस वक्त बांग्लादेश में स्वतंत्रता संग्राम चल रहा था और वहां से भाग कर लाखों लोग भारत आ गए थे. जो लोग 1971 के बाद पैदा हुए उन्हें यह साबित करना है कि उनके मां बाप, दादा दादी या नानी नाना 1971 के पहले से भारत में रह रहे थे. ऐसे राज्य में जहां बहुत से लोग अनपढ़ हैं और जिनके पास बुनियादी कागजात भी नहीं हैं उनके लिए यह साबित कर पाना एक बड़ी चुनौती है.
अंतिम तारीख से दो हफ्ते पहले सूची में शामिल लोगों में महज 15 लाख लोगों ने ही नाम शामिल करने का दावा पेश किया है. नूर मोहम्मद की बीवी यार्जन नेसा ने अपने गांव के प्रमुख से मिला प्रमाण पत्र पेश किया ताकि वह अपनी मां से अपना रिश्ता साबित कर सके लेकिन उसे खारिज कर दिया गया. यार्जन नेसा बताती हैं, "मेरे पास और कोई दस्तावेज नहीं है ना कभी मैं स्कूल गई ना ही मेरा कोई बैंक में खाता है."
असम ने इतिहास में कई बार बड़ी संख्या में लोगों को आते देखा है. इसकी शुरूआत शायद तब हुई थी जब ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासकों ने यहां चाय के बगानों में काम करने के लिए बंगाली मजदूरों को लाना शुरू किया. यह सिलसिला 1947 में आजादी मिलने के बाद भी जारी रहा. आज असम की 3.1 करोड़ आबादी में बांग्ला बोलने वाले लोग 30 फीसदी से ज्यादा हैं.
धार्मिक, भाषाई और जातीय आधार पर असम कई बार हिंसा की आग में झुलसा. 1983 में तो एक ही दिन 2000 बांग्ला भाषियों की हत्या कर दी गई. असम में स्थायी राजनीतिक समाधान के लिए दबाव काफी ज्यादा था. असम में नागरिकों की पहचान की पहली नाकाम कोशिश 1951 में हुई थी.
2008 में असम के एक प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को पहुंचा दिया. छह साल बाद कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि वह नागरिकों की सूची को अपडेट करे. आलोचकों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी इसका इस्तेमाल कर 2019 के चुनाव के पहले मुस्लिम विरोधी भावनाओं का भड़काना चाहती है. असम में भी बीजेपी ही सत्ता में है. बंगालियों में दो तिहाई मुस्लिम हैं और बाकी हिंदू. दूसरी तरफ राज्य की बहुसंख्यक जनता असमी बोलती है और उसमें ज्यादातर हिंदू हैं.
स्थानीय रिसर्चर और सामाजिक कार्यकर्ता अब्दुल कलाम आजाद ने बताया कि उन्होंने 2015 में एनआरसी की प्रक्रिया शुरू होने के बाद कम से कम 26 लोगों की आत्महत्या के मामले दर्ज किए हैं. उनका कहना है कि इस पूरी प्रक्रिया का लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर जो असर पड़ा है वह बड़ी समस्या है.
मोदी सरकार का कहना है कि किसी भी "असली" भारतीय को सूची से बाहर नहीं रखा जाएगा. दूसरी तरफ बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं कि भारत को उन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करना चाहिए "जो घुसपैठिए हैं और देश को दीमक की तरह खा रहे हैं."
कार्यकर्ताओं का कहना है कि लोगों के दावे मामूली गलतियों या फिर कमियों के आधार पर खारिज हो रहे हैं और बहुत से अधिकारी भी उलझन में हैं. बांग्ला बोलने वाली 88 साल की बाहरजान नेसा ने बताया कि उनका नाम, उनके बेटे और बहू के साथ सूची से बाहर है, जबकि उनके पास 1954 के मतदाता सूची की एक कॉपी है जिसमें उनके पिता का नाम दर्ज है.
सूची से बाहर लोगों में हाजोंग लोग भी हैं जो 1960 के दशक में यहां उस हिस्से से आए थे जिसे आज बांग्लादेश कहा गया था. उस वक्त उन्हें शरणार्थी का दर्जा दिया गया था.
31 दिसंबर की समय सीमा खत्म होने के बाद फरवरी में दावों के "पुष्टिकरण" की प्रक्रिया शुरू होगी. जो लोग सूची में शामिल नहीं हो पा रहे हैं उनका क्या होगा यह अभी साफ नहीं है. कट्टरपंथी लोगों को देश से बाहर भेजने की मांग कर रहे हैं. इस बीच 31 बच्चों समेत 1,037 लोगों को पहले ही राज्य में बने छह भीड़ भरे कैम्पों में भेज दिया गया है. ऐसी खबरें आ रही हैं कि 3000 लोगों की क्षमता वाला एक सातवां कैम्प भी बनाया जा रहा है. बांग्लादेश का कहना है कि वह भेजे गए लोगों को स्वीकार नहीं करेगा दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी ने भी कथित रूप से कहा है कि ऐसी कोई योजना नहीं है.
लोगों को अगर कैम्प में या फिर देश से बाहर नहीं भेजा गया तो भी नागरिकता नहीं होने का डर उनकी आम जिंदगी को दूभर कर देगा. इलाज, पढ़ाई जैसी सुविधाएं उनके लिए मुश्किल हो जाएंगी. यार्जन नेसा कहती हैं, "क्या मुझे भी हिरासत में लिया जाएगा, मुझे नहीं पता कि क्या करूं, कहां से दूसरा दस्तावेज लाऊं."
एनआर/ओएसजे (एएफपी)