अमेरिका और ईरान का अविश्वास
१९ अगस्त २०१३अमेरिका के लिए ईरान एक कट्टरपंथी शासन है, जो परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है और "दुष्टों की धुरी" का हिस्सा है. दूसरी ओर तेहरान के लिए वाशिंगटन में काफिर और बड़ा शैतान बैठा है जो सारी मुसीबतों की जड़ है. शायद ही किसी और दो देशों के रिश्ते इतने खराब हैं जितने ईरान और अमेरिका के. दोनों एक दूसरे पर भरोसा नहीं करते और दूसरे द्वारा अपमानित महसूस करते हैं. इस दुश्मनी की जड़ें 1979 में हुई इस्लामी क्रांति से पीछे जाती हैं. अमेरिका ने 1953 में पहली बार ईरान की राजनीति में गंभीर हस्तक्षेप किया था, जिसके नतीजे पश्चिम एशिया को अभी भी प्रभावित कर रहे हैं.
औपनिवेशिक रवैया
दूसेर विश्व युद्ध के बाद वाशिंगटन और तेहरान के लिए दुनिया ठीक ठाक थी. टाइम पत्रिका ने ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेक को 1951 में मैन ऑफ द इयर चुना था क्योंकि उन्होंने ईरान में ब्रिटेन के तेल कुओं का राष्ट्रीयकरण करने की हिम्मत दिखाई थी. इसके लिए अमेरिका के वरिष्ठ राजनेताओँ ने भी उनकी सराहना की थी. जर्मनी के एयरफुर्ट यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर युर्गेन मार्चुकाट कहते हैं, "अमेरिका में उस समय तीसरी दुनिया के उपनिवेशविरोधी स्वतंत्रता आंदोलनों के लिए बहुत सहानुभूति थी." वे कहते हैं कि मोसादेक को एक तरह से ईरान का बेंजामिन फ्रैंकलिन समझा जाता था.
लेकिन ब्रिटेन इससे खुश नहीं था. ईरान के तेल के कुंए 20वीं सदी के शुरू से उसके हाथों में थे. एंग्लो ईरानियन ऑयल कंपनी ब्रिटेन को हर साल भारी मुनाफा कराती थी. बर्लिन में रहने वाले ईरानी लेखक बहमन निरुमंद कहते हैं, "दशकों तक ब्रिटेन ईरान का तेल लूटता रहा. ईरान को तेल कुंओं के लिए सिर्फ एकमुश्त राशि मिली थी." इसलिए 1940 के दशक से ईरानी राजनीतिज्ञ तेल की आमदनी के उचित बंटवारे की मांग कर रहे थे. ब्रिटेन ठेके के समझौते को पूरा करने की मांग पर अड़ा था. 1951 में प्रधानमंत्री बनने के बाद मोसादेक ने समझौता तोड़ दिया और तेल कुओं का राष्ट्रीयकरण कर दिया.
लंदन की प्रतिक्रिया रोष भरी थी. उसने ईरान पर हमला करने की धमकी दी और अमेरिका से मदद मांगी लेकिन राष्ट्रपति हैरी ट्रूमैन की सरकार ने हाथ उठा दिया. हालांकि दोनों साथी देश थे, लेकिन अमेरिका की ईरान को स्थायी रूप से कमजोर करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी. ईरान को साम्यवादी सोवियत संघ की बाहों में धकेले जाने का डर बहुत बड़ा था. इसके अलावा ट्रूमैन का यह भी मानना था कि अपने सख्त रवैये की वजह से ब्रिटेन भी मौजूदा हालत के लिए जिम्मेवार था.
सीआईए और तख्तापलट
अमेरिका का रुख 1952 के अंत में आईजेनहॉवर के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद बदल गया. ईरान और ब्रिटेन दो साल से बिना किसी नतीजे पर पहुंचे सौदेबाजी कर रहे थे, दोनों अपने अपने रुख पर अड़े थे, माहौल दुश्मनी वाला था. ब्रिटेन ने ईरान से तेल खरीदने पर प्रतिबंध लगा दिया था. ईरान की अर्थव्यवस्था बदहाल थी. साम्यवादी तूदेह पार्टी जैसी कट्टरपंथी ताकतों को लोगों का समर्थन मिल रहा था. अमेरिका में आईजेनहॉवर के साथ साम्यवाद विरोधी हार्डलाइनरों ने सत्ता की बागडोर संभाल ली थी.
जॉन फोस्टर डलेस विदेश मंत्री बने. उनके भाई एलेन खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रमुख. वे ईरान में हो रहे विकास पर चिंतित थे और मोसादेक को तो पागल तक कह दिया था, जो अपनी टकराव की नीति से तेल बहुल देश को सोवियत संघ के पलड़े में ले जा सकते थे. इतिहासकार मार्चुकाट कहते हैं, "वे इस नतीजे पर पहुंचे कि मोसादेक के रहते इस मुश्किल स्थिति का समाधान नहीं किया जा सकता." हालांकि अमेरिका ने सैनिक हस्तक्षेप के प्रस्ताव को ठुकरा दिया, लेकिन आईजेनहॉवर प्रशासन दूसरे साधनों के इस्तेमाल के लिए तैयार था. यह वह क्षण था जिसमें सीआईए इस खेल में शामिल हुआ.
1953 की गर्मियों में सीआईए ने ऑपरेशन आयाक्स शुरू किया. उसने राजनीतिज्ञों, अधिकारियों और धार्मिक नेताओं को रिश्वत देकर मुसादेक के खिलाफ करना शुरू किया. उधर शाह रजा पहलवी को मोसादेक को बर्खास्त करने के लिए मनाया गया. 19 अगस्त को प्रधानमंत्री के निजी घर के सामने मोसादेक समर्थकों और विद्रोहियों के बीच झड़पें हुईं. स्कूली छात्र के रूप में इस विद्रोह के गवाह बने बहमन निरुमंद कहते हैं, "मोसादेक के खिलाफ प्रदर्शन करने वालों में हत्यारे गिरोह और शहर के दक्षिणी हिस्से के गरीब लोग थे जिन्हें पैसे देकर लाया गया था." शाह की सेना के हस्तक्षेप के साथ ईरान में लोकतांत्रिक परीक्षण का अंत हुआ.
अविश्वास की जड़
निरुमंद का कहना है कि तख्तपलट के दौरान ही लोगों को शक था कि विद्रोह ईरानियों द्वारा आयोजित नहीं था. जल्द ही यह शक बकीकत में बदल गया. शाह को इसके बाद अमेरिका से बड़े पैमाने पर मदद मिली. तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण वापस ले लिया गया. तेल से होने वाली आमदनी का आधा हिस्सा ईरान को मिलने लगा और आधा हिस्सा अमेरिकी और ब्रिटिश कंपनियों के एक कंसोर्टियम को. अमेरिका की मदद से रजा शाह पहलवी ने अपनी तानाशाही कायम कर ली. बरहम निरुमंद कहते हैं, "उस समय ईरान में 10,000 अमेरिकी सलाहकार थे. देश पर 25 साल तक उनका शासन रहा."
अयातुल्लाह खोमैनी की इस्लामी क्रांति ने 1979 में शाह का तख्ता पलट दिया. इतिहासकार युर्गेन मार्चुकाट कहते हैं, "मोसादेक की याद पूरे विरोध प्रदर्शनों के दौरान मौजूद थी." 1978 में शाह विरोधी प्रदर्शन के दौरान बहुत से आंदोलनकारियों के हाथों में मोसादेक की तस्वीर दिखती थी. 1979 में जब ईरानियों की क्रुद्ध भीड़ ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर हमला कर 52 राजनयिकों को बंधक बना लिया था, तो इसका सांकेतिक महत्व था. इसी मकान से मोसादेक का तख्तापलट करने वालों ने 1953 में आंदोलन का संचालन किया था.
बहमन निरुमंद का कहना है कि मोसादेक के तख्तापलट ने ईरानी समाज में गहरा जख्म छोड़ा है, जिसके निशान आज भी महसूस किए जा सकते हैं. उनका मानना है कि इस घटना के 60 साल बाद भी मुल्लाओं के अमेरिका विरोधी प्रचार के सफल होने की वजह उस समय सीआईए द्वारा ईरानी लोकतंत्र को नष्ट किया जाना है. उनका कहना है, "अमेरिकियों पर भरोसा नहीं किया जा सकता." दूसरी ओर अमेरिका के विशेषज्ञ मार्चुकाट कहते हैं, "दूतावास पर हमला अमेरिका की स्वयं की धारणा में महत्वपूर्ण मोड़ था." इसने अमेरिका के दुश्मन के रूप में ईरान की छवि को और पुख्ता कर दिया. इस बीच दोनों देशों के बीच अविश्वास इतना गहरा गया है कि दोनों के बीच सीधी बातचीत संभव नहीं हैं.
ऐतिहासिक गलती
फौरी तौर पर 1953 का तख्ता पलट अमेरिकियों के लिए बहुत ही फायदेमंद रहा. इसकी वजह से अमेरिका को 25 साल तक शाह की वफादारी और ईरान के तेल भंडार पर पूरी पहुंच मिली. लेकिन दूरगामी रूप से यह बहुत बड़ी गलती साबित हुई. युर्गेन मार्चुकाट कहते हैं, "इतिहासकारों के बीच इस पर आम सहमति है." 1950 के शुरू में अमेरिका सिर्फ ईरान में ही नहीं बल्कि पूरे पूर्व एशिया में अत्यंत लोकप्रिय था. "ऐसे देश के रूप में, जिसने खुद को यूरोप के औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराया है, अमेरिका एक आदर्श था."
तब तक जब उसने 1953 में आर्थिक हितों की वजह से एक लोकतांत्रिक सरकार को गिराने का फैसला किया और उसकी जगह पर एक तानाशाही स्थापित कर दी. 60 साल पहले ईरान में हुए तख्तापलट पर अमेरिका विशेषज्ञ मार्चुकाट कहते हैं, "अमेरिका ने वहां बहुत कुछ दांव पर लगा दिया."
रिपोर्ट: थॉमस लाचन/एमजे
संपादन: निखिल रंजन