अमीर शहर बनाम गरीब शहर
२४ अप्रैल २०१३जर्मनी में कहावत है कि "जहां ज्यादा है, वहीं ज्यादा आता भी है." यह बात जर्मनी के शहरों की वित्तीय स्थिति पर भी लागू होती है. हैम्बर्ग, फ्रैंकफर्ट और म्यूनिख जैसे शहर आर्थिक रूप से मजबूत होते जा रहे हैं और इसके साथ लोगों के लिए आकर्षक भी. इसके विपरीत ओबरहाउजेन, डुइसबुर्ग या गेल्जेनकिर्षेन जैसे बहुत से दूसरे शहर संसाधनों की भारी कमी का सामना कर रहे हैं. इन शहरों में पैसा चुकाने की हालत में नहीं होने के कारण किंडरगार्टन बंद हो रहे हैं, स्कूलों में फंफूद लग रही है, सांस्कृतिक भवनों को बंद किया जा रहा है.
हालांकि पिछले सालों में स्थिर आर्थिक विकास के कारण कुछ इलाकों में स्थिति सुधरी है, लेकिन न्यूरेमबर्ग के मेयर ऊलरिष माली का कहना है कि जर्मनी के शहर धनी और गरीब दो खेमों में बंटते जा रहे हैं. जर्मनी के शहरों के संघ के प्रमुख बनने जा रहे माली कहते हैं, "हम देख रहे हैं कि बेहतर आर्थिक आंकड़ों के बावजूद गरीब और अमीर शहरों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है."
समस्या के कई कारण
शहरों के विकास को प्रभावित करने में स्थानीय परिस्थितियों के अलावा दूसरे कारण भी हैं, जो सरकार के लागू किए गए कानूनों के कारण पैदा हुए हैं. ऊलरिष माली कहते हैं, "स्थानीय निकायों के बजट पर सामाजिक कल्याण के खर्चों के कारण अभूतपूर्व बोझ पड़ता है, खासकर दूर दराज क्षेत्र के कुछ शहरों में." इसकी वजह संरचनात्मक परिवर्तनों का सामना कर रहे इन इलाकों में बेरोजगारी दर काफी ऊंची है.
ग्रीस जैसी परिस्थितियों के पैदा होने का डर बार बार व्यक्त किया जाता है. आलोचकों का कहना है कि कुछ किया नहीं गया तो जर्मनी के शहर दिवालिया हो जाएंगे, लेकिन बर्लिन के जर्मन शहरीकरण संस्थान के श्टेफान श्नाइडर का कहना है कि यह चिंता आधारहीन है. "ऐसा कुछ हमारे यहां संभव नहीं है. यदि कोई शहर अपनी जिम्मेदारियां पूरी नहीं कर सकता तो यह जिम्मेदारी प्रांतीय सरकार को लेनी होगी." इस सुरक्षा की वजह से बहुत से शहरों ने इतना कर्ज ले लिया है जो उन्हें उनकी माली हालत के आधार पर नहीं मिलता. अब वे अपनी ताकत से यह कर्ज चुकाने की हालत में नहीं हैं.
सामूहिक हल
यूरोप में हर देश कर्ज के संकट का सामना कर रहा है. सरकारों पर कर्ज को कम करने का भारी दबाव है क्योंकि बजट का बड़ा हिस्सा हर साल ब्याज चुकाने में खर्च हो जाता है. न्यूरेमबर्ग के मेयर ऊलरिष माली इस बात से इनकार करते हैं कि शहर कर्ज को कम करने में बहुत कम योगदान दे रहे हैं. उनका कहना है कि स्थानीय निकायों ने पिछले 20 सालों में केंद्र और प्रांतीय सरकारों के मुकाबले ज्यादा बचत की है. माली का कहना है कि उन्हें कारोबार टैक्स के रूप में स्थिर आमदनी के अलावा अधिक सरकारी मदद की जरूरत है.
माली कहते हैं कि समाज कल्याण के खर्चों में विस्फोटक वृद्धि से शहरों को राहत देने की जरूरत है, "मसलन विकलांग नागरिकों के समाज में समेकन का खर्च स्थानीय निकाय उठाते हैं, जबकि यह सामाजिक जिम्मेदारी है." इसी तरह माली हर बच्चे के लिए किंडरगार्टन के फैसले को लागू करने में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों की मदद चाहते हैं. न्यूरेमबर्ग के मेयर का कहना है कि बड़े मुद्दों के लिए साझा वित्तीय व्यवस्था होनी चाहिए.
कई बार तो कुछ मेयर शहरों की बुरी आर्थिक हालत के लिए खुद भी जिम्मेदार होते हैं. दिखावेबाजी का मौका देने वाली परियोजना पर वे अंधाधुंध खर्च कर देते हैं और शहर के खजाने को दबाव में डाल देते हैं. लेकिन जब बचत करनी होती है तो शहर के हर संस्थान और हर पेशकश की परीक्षा होती है. देखा जाता है कि बचत कहां की जा सकती है. बहुत सी जगहों पर पुस्तकालय बंद करने या थियेटर और स्विमिंग पूल बंद करने का कड़ा विरोध होता है.
टिकाऊ योजना
जर्मन शहरीकरण संस्थान के श्टेफान श्नाइडर जैसे लोग स्थानीय निकायों के प्रतिनिधियों को सलाह देते हैं कि उन्हें अपनी नीतियों को बदलने के बारे में सोचना चाहिए. सिर्फ एक साल की योजना बनाने के बदले, जैसा कि इस समय ज्यादातर जगहों पर होता है, उन्हें अपनी वित्तीय और संरचनात्मक योजनाओं को लंबे समय वाली बनानी चाहिए. तब आबादी में बदलाव पर भी ध्यान दिया जा सकेगा. "हमें आज पता है कि उन शहरों में जहां आज स्कूलों की बहुत जरूरत है, अगले 10 से 15 साल में स्कूलों की जरूरत नहीं होगी. इसलिए आज ही सोचना होगा कि स्कूलों का उसके बाद किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है."
इसके लिए चुनावी कार्यकाल के बाहर की अवधि में भी सोचना जरूरी है. न्यूरेमबर्ग के मेयर ऊलरिष माली का कहना है कि इसके लिए स्थानीय स्तर पर अच्छी परिस्थितियां मौजूद हैं. जर्मनी के निगमों और पालिकाओं में अधिकांश फैसले एकमत से लिए जाते हैं. इनमें सभी पार्टियों का प्रतिनिधित्व होता है, इसलिए इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि अगले चुनाव के बाद कौन सत्ता में आएगा. इसलिए चुनाव की तारीख की परवाह किए बिना फैसले लिए जा सकते हैं.
रिपोर्ट: मार्टिन कॉख/एमजे
संपादन: ओंकार सिंह जनौटी