अकबर ना होता तो आज का 'इलाहाबाद भी ना होता'
१६ अक्टूबर २०१८सरकार का कहना है कि इस बारे में उसे साधु-संतों, अखाड़ा परिषद और कुछ प्रबुद्ध लोगों की ओर से प्रस्ताव आए थे. दो दिन पहले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने इलाहाबाद में इसकी घोषणा की थी और मंगलवार को राज्य कैबिनेट ने इसकी मंजूरी दे दी.
लेकिन सरकार के इस फैसले की राजनीतिक दलों में आलोचना हो रही है. आलोचक कहते हैं कि कि सरकार के काम-काज से लोगों का ध्यान हटाने के लिए ऐसा हो रहा है. कई बुद्धिजीवी भी इसे बेतुका फैसला बता रहे हैं. लेकिन तमाम हिन्दू संगठन सरकार के इस प्रयास के समर्थन में भी खड़े हैं और सरकार की वाहवाही कर रहे हैं.
दरअसल, इलाहाबाद उत्तर प्रदेश का एक ऐसा शहर है जिसकी ऐतिहासिक दृष्टि से हर काल-खंड में राजनीतिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में एक अलग पहचान रही है. प्राचीन काल में यह शहर प्रयाग नाम से जाना जाता था लेकिन साल 1583 के बाद से इसकी पहचान इलाहाबाद के रूप में हो गई.
जानकारों के मुताबिक प्राचीन ग्रंथों में इस शहर का नाम प्रयाग या फिर प्रयागराज ही आता है. पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक ब्रह्मा ने सबसे पहले यहीं पर यज्ञ किया था, इसीलिए इस भूमि का नाम प्रयाग पड़ा. रामचरित मानस में भी इसे प्रयागराज ही कहा गया है जबकि यह ग्रंथ सोलहवीं शताब्दी का है.
अकबरनामा और अन्य मुगलकालीन ऐतिहासिक पुस्तकों से पता चलता है कि अकबर ने साल 1574 के आसपास प्रयागराज में किले की नींव रखी और एक नया शहर बसाया जिसे इलाहाबाद नाम दिया गया. 1583 में इस शहर का नाम अकबर द्वारा चलाए गए संप्रदाय दीन-ए-इलाही के नाम पर रखा गया.
हालांकि इस दौरान भी और आज भी यहां संगम तट के आस-पास के इलाके को प्रयाग ही कहा जाता रहा है और हर साल लगने वाले माघ मेला या फिर छह वर्ष और 12 वर्ष के अंतराल पर लगने वाले अर्धकुंभ और कुंभ मेले के दौरान बसने वाले तंबुओं के शहर को प्रयागराज मेला क्षेत्र ही कहा जाता रहा है. शहर के पास स्थित एक प्रमुख रेलवे स्टेशन का नाम भी प्रयाग स्टेशन है.
आजादी के बाद भी यहां की न सिर्फ राजनीतिक हैसियत अहम रही है बल्कि साहित्य, संस्कृति और कला के क्षेत्र में भी यह शहर अग्रणी रहा है. धार्मिक पहचान तो विशिष्ट रही ही है.
लेकिन इस शहर का नाम बदलने की कोशिशों के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आज जो इलाहाबाद शहर है क्या वही शहर प्रयाग रहा है या फिर दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे से अलग रहा है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं कि आज जो इलाहाबाद है, वो प्रयाग नहीं है, बल्कि दोनों अलग-अलग हैं.
हेरंब चतुर्वेदी के मुताबिक, "भौगोलिक और पौराणिक दृष्टि से देखें तो प्रयाग का इलाका तो बहुत ही सीमित है. गंगा के उस पार झूंसी और यमुना के उस पार अरैल क्षेत्र ही पुराने प्रयाग शहर में आते हैं. अकबर ने यदि दोनों नदियों के किनारे बांध बनवाकर इस शहर को न बसाया होता तो आज जो इलाहाबाद है, उसका अस्तित्व ही नहीं रहता.”
हेरंब चतुर्वेदी का कहना है कि पुराना शहर जो चौक, खुल्दाबाद, नखासकोना इत्यादि का इलाका है, ये सब तभी विकसित हो सके जब बांध बनाकर गंगा और यमुना के पानी को रोका गया. यदि ऐसा न हुआ होता तो शहर का अस्तित्व ही न होता. उनका कहना है कि पौराणिक रूप से और ऐतिहासिक रूप से भी प्रयाग राज का महत्व रहा है लेकिन बहुत ही सीमित क्षेत्र में.
इलाहाबाद शहर से जुड़ा दूसरा पहलू यह है कि देश-दुनिया में इसकी जो विशिष्ट पहचान है, वह इसी नाम से है. प्रयाग नाम से सिर्फ धार्मिक महत्व है जो पहले भी था और आज भी है. इलाहाबाद में विश्वविद्यालय, हाई कोर्ट, लोक सेवा आयोग के अलावा केंद्र और राज्य सरकार के तमाम दफ्तर तो हैं ही, लंबे समय से यह शहर कला और संस्कृति का एक प्रमुख केंद्र रहा है. शहर से जुड़ा हर व्यक्ति इस जुड़ाव पर खुद को गौरवान्वित महसूस करता है.
राज्य सरकार ने पिछले करीब डेढ़ साल में यूं तो कई सड़कों और इमारतों के नाम बदले हैं या अपनी पसंद से रखे हैं लेकिन पिछले दिनों मुगलसराय का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय नगर करना खासा चर्चित रहा. और अब इसी कड़ी में इलाहाबाद का नाम भी शामिल होने जा रहा है. इसे लेकर राजनीतिक टिप्पणियां तो आ ही रही हैं बौद्धिक जगत में खासी मायूसी है. सोशल मीडिया में सरकार के इस फैसले पर काफी सवाल उठ रहे हैं. कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी कहते हैं कि प्रयागराज नाम पर आपत्ति नहीं है लेकिन इसे बदलने का औचित्य क्या है.
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन रह चुके मार्कंडेय काटजू भी इलाहाबाद के रहने वाले हैं. फेसबुक पर इस काम के लिए मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी को व्यंग्यात्मक लहजे में धन्यवाद देने वाली उनकी पोस्ट खूब वायरल हो रही है. मार्कंडेय काटजू ने उन्हें यूपी के 18 और शहरों के नाम बदलने का सुझाव दिया है जिनमें फैजाबाद को नरेंद्रनगर, फतेहपुर को अमित शाह नगर, फतेहपुर सीकरी को योगी आदित्यनाथ नगर, गाजियाबाद को घटोत्कचनगर करने के सुझाव शामिल हैं.
जानकारों का कहना है कि नाम बदलने के पीछे सरकार की मंशा साफ है, वो इसके जरिए कुछ खास वर्ग को खास संदेश देना चाहती है. इलाहाबाद के रहने वाले वरिष्ठ समाजसेवी फूलचंद दुबे कहते हैं, "यदि प्रयागराज से इतना प्यार था तो इस नाम से एक अलग जिला ही बना देते. पहले भी इलाहाबाद से काटकर कौशांबी जिला बन चुका है. लेकिन इसके लिए इतने महान शहर की पहचान खत्म करने का क्या मतलब है.”
इलाहाबाद की एक पहचान यह भी रही है कि यह शहर देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का न सिर्फ जन्म स्थली बल्कि कर्म स्थली भी रहा है. इलाहाबाद जिले में ही आने वाली फूलपुर लोकसभा सीट से नेहरू चुनाव लड़ते रहे. इसके अलावा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही निकल कर कई लोग देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, कई राज्यों के मुख्यमंत्री जैसे राजनीतिक पदों पर पहुंचे हैं. देश के कई नामी साहित्यकार, कानूनविद, वैज्ञानिक और कला-संस्कृति से जुड़ी अनेक हस्तियां तो इस फेहरिस्त में शामिल हैं.
वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया कहती हैं, "इलाहाबाद नाम तो दिल में बसा है, उसे कैसे बदला जाएगा. सरकार को शहर की दूसरी समस्या पर ध्यान देना चाहिए. नाम की तो कोई समस्या है ही नहीं. माघ मेला में शहर तो प्रयागराज के नाम से जाना ही जाता है.”
लेकिन अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि सरकार के इस फैसले का पुरजोर समर्थन करते हैं. उनका कहना है कि इसका नाम तो बहुत पहले ही प्रयागराज हो जाना चाहिए था, "प्रयाग पौराणिक नाम है जो कि यज्ञ और तपस्या की भूमि है. यदि किसी शासक ने इसका नाम बदलकर अपनी रुचि के अनुसार इलाहाबाद रख दिया तो उससे इतिहास नहीं बदल गया. संत मुख्यमंत्री ने भारतीय संस्कृति को पुनर्जागृत कर दिया.”